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जब गुर्दे बंद कर देें काम करना

भारत में हर साल एक लाख से अधिक मरीजों के गुर्दे फेल होते हैं। केवल उत्तर प्रदेश में हर साल करीब 14 हजार मरीजों के गुर्दे बेकार होते हैं। इनमें से करीब 92 प्रतिशत मरीजों की समुचित चिकित्सा के अभाव में मौत हो जाती है। 
रीढ़ के दोनों तरफ स्थित गुर्दे रक्त को छानकर उसे साफ करने का काम करते हैं ताकि शरीर में स्वच्छ रक्त का प्रवाह हो। हृदय की तरह दिन-रात अनवरत काम करते हुये हमारे ये गुर्दे रक्त से छाने गये जहरीले अंश को मूत्र के रास्ते शरीर से बाहर निकाल देते हैं। गुर्दे खराब होने पर रक्त की सफाई नहीं हो पाती जिसके कारण शरीर के विभिन्न अंगों एवं मांसपेशियों को अशुद्ध और जहरीले रक्त की आपूर्ति होती है। ऐसे में रोगी की जान बचाने के लिये डायलिसिस के जरिये या तो रक्त को कृत्रिम तौर पर साफ करना जरूरी होता है या गुर्दे का प्रत्यारोपण करना पड़ता है। गुर्दे के मरीज के लिये डायलिसिस मशीन कृत्रिम गुर्दे का काम करती है। मरीज की स्थिति के अनुसार सप्ताह में तीन बार या अधिक बार डायलिसिस के जरिये रक्त को साफ करना पड़ता है। 
ज्यादातर मरीज आर्थिक तंगी एवं गरीबी के कारण गुर्दे बेकार होने पर डायलिसिस, गुर्दा प्रत्यारोपण या कोई अन्य इलाज नहीं करवा पाते जिसके कारण उनकी मौत हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर साल एक लाख मरीजों में से केवल तीन हजार मरीज गुर्दा प्रत्यारोपित करवा पाते हैं और तकरीबन पांच हजार मरीज डायलिसिस करवाते हैं। शेष करीब 93 प्रतिशत अर्थात हर साल गुर्दे के करीब 92 हजार मरीजों की मौत समुचित उपचार के अभाव में हो जाती है। 
अपने देश में डायलिसिस तथा गुर्दा प्रत्यारोपण की सुविधाओं का भयंकर अभाव है। देश में ऐसे अस्पताल एवं चिकित्सा केन्द्र गिनती के हैं जहां ये सुविधायें मौजूद हैं। इसके अलावा देश में नेफ्रोलाॅजिस्ट की भी काफी कमी है। देश में डायलिसिस कराने वाले नेफ्रोलाॅजिस्ट 700 हैं जबकि गुर्दा प्रत्यारोपित करने वाले सर्जनों की संख्या मात्र 50 है। 
गुर्दा प्रत्यारोपण के मामले में एक और दिक्कत समुचित गुर्दे के नहीं मिलने को लेकर है। हालांकि गुर्दे के समुचित प्रत्यारोपण के बाद मरीज सामान्य जीवन जीने में सक्षम रहता है लेकिन उसे जिंदगी भर मंहगी दवाइयां खानी पड़ती है और काफी सावधानियां बरतनी पड़ती है। इन सब के बावजूद प्रत्यारोपण की सफलता दर 90 प्रतिशत से भी अधिक है। मरीज के शरीर को स्वीकार्य गुर्दे सामान्यतः 13 साल से अधिक चलते हैं। 
गुर्दा प्रत्यारोपण के लिये किसी भी व्यक्ति से गुर्दा नहीं लिया जा सकता है। हाल में बने अंग दान कानून के बाद अब बे्रन डेथ व्यक्ति का भी गुर्दा लिया जाना संभव हो गया है। लेकिन भारत में ज्यादातर गुर्दा प्रत्यारोपण जीवित व्यक्ति के गुर्दे के ही हो रहे हैं। सबसे अच्छा गुर्दादाता परिवार के किसी सदस्य को ही माना जाता है क्योंकि ऐसी स्थिति में मरीज के शरीर में गुर्दे की स्वीकार्यता बढ़ जाती है। गुर्दा दानदाता के शरीर से एक गुर्दा निकालने पर दानदाता को कोई नुकसान नहीं होता है। वह सभी काम पहले की तरह कर सकता है और वह अपनी पूरी जिंदगी जीता है। जिस व्यक्ति से गुर्दा लिया जाता है उसकी पूरी जांच की जाती है ताकि यह पता लगे कि उसे कोई गंभीर बीमारी तो नहीं है। इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि गुर्दा दान दाता का रक्त मरीज के रक्त से मिलता है या नहीं। अगर परिवार का कोई व्यक्ति गुर्दा देने के लिये अनुकूल नहीं पाया जाता तो परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति का गुर्दा उसकी मर्जी से लिया जा सकता है। कानून के तहत गुर्दे को खरीदना-बेचना गैरकानूनी है इसलिये यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है कि जो व्यक्ति गुर्दा दे रहा है वह अपनी मर्जी से और बिना किसी प्रलोभन के दे रहा है। इसके अलावा यह भी पूरी तरह से सुनिश्चित किया जाता है कि गुर्दादान दाता को गुर्दा देने से भविष्य में किसी तरह की दिक्कत तो नहीं आयेगी। अगर आॅपरेशन कक्ष में गुर्दादान दाता के शरीर से गुर्दा निकालते वक्त भी ऐसा लगता है कि गुर्दा निकालने से उसे कोई खतरा हो सकता है तो किसी भी हालत में उसका गुर्दा नहीं लिया जाना चाहिये। हालांकि दो में से एक गुर्दा निकालने से व्यक्ति को कोई दिक्कत नहीं होती है। 
गुर्दे में खराबी के लिये मधुमेह और उच्च रक्त दाब मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। हालांकि गुर्दे की पथरी, प्रोस्टेट की बीमारी और गुर्दे में संक्रमण के कारण भी गुर्दे खराब हो सकते हैं। करीब 50 प्रतिशत मरीजों में उच्च रक्त दाब और मधुमेह के कारण ही गुर्दे खराब होते हैं। मधुमेह होने पर गुर्दे तत्काल खराब नहीं होते बल्कि 15-20 साल में खराब होते हैं। अगर मरीज आरंभ से ही मधुमेह को नियंत्रित रखे तो गुर्दे को खराब होने से बचाया जा सकता है। गुर्दे पर मधुमेह के प्रभाव को डायबिटिक नेफ्रोपैथी कहा जाता है। अगर मरीज मधुमेह के साथ-साथ उच्च रक्त दाब से भी पीड़ित हो तो डायबिटिक नेफ्रोपैथी होने की आशंका चैगुनी हो जाती है। 
रक्त दाब काफी समय तक रहने पर गुर्दे पर दबाव पड़ता रहता है जिससे गुर्दे खराब हो जाते हैं। गुर्दे की पथरी का लंबे समय तक इलाज नहीं कराने पर पथरी धीरे-धीरे गुर्दे को क्षतिग्रस्त कर सकती है। बिना कारण से या चिकित्सक के परामर्श के बगैर दवाइयों के सेवन करने से भी गुर्दे को नुकसान पहुंच सकता है। कुछ लोग कई देशी और दर्दनिवारक दवाइयां का अंधाधुंध सेवन करते हैं। कई लोग जोड़ों में दर्द होने पर कोई समुचित इलाज कराये बगैर 20-20 साल तक दर्दनिवारक दवाइयां ही खाते रहते हैं। इसके अलावा गुर्दे की कुछ बीमारियां वंशानुगत होती हैं। इनमें पाॅलिसिस्टिक बीमारी प्रमुख है जिसमें गुर्दे बढे़ होते हैं और बड़े-बड़े सिस्ट हो जाते हैं। 
गुर्दे की बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है लेकिन यह बीमारी अधेड़ावस्था में ज्यादा होती है। 
कई बार गुर्दे क्षतिग्रस्त या खराब नहीं होते बल्कि निष्क्रिय हो जाते हैं। खास तौर पर डिहाइड्रेशन, पेट में खराबी, पतला दस्त होने पर कई बार गुर्दे अस्थायी तौर पर निष्क्रिय हो जाते हैं। कई बार मरीज की कुछ दिन डायलिसिस करने पर गुर्दे में  सुधार होता है लेकिन जिस व्यक्ति के गुर्दे खराब हो चुके हैं उनके गुर्दे डायलिसिस करने पर भी ठीक नहीं हो सकते हैं। 
कई मरीजों में गुर्दे 50 से 90 प्रतिशत मृत होते हैं और केवल पांच प्रतिशत ही सक्रिय होते हैं। ऐसे मरीजों की डायलिसिस करने पर हो सकता है कि उनकी स्थिति में कुछ सुधार हो और मरीज को अधिक अंतराल के बाद डायलिसिस करने की जरूरत पड़े। 
गुर्दे के 90 प्रतिशत मरीजों में जब तक  बीमारी गंभीर रूप धारण नहीं कर लेती है तब तक बीमारी के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। मरीज में जो लक्षण प्रकट होते हैं वे ऐसे लक्षण होते हैं जिनसे यह स्पष्ट नहीं होता कि मरीज को गुर्दे की समस्या है। ऐसे मरीजों को आम तौर पर कमजोरी, हीमोग्लोबिन में कमी, रक्त दाब बढ़ने और मूत्र में शुगर आने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं और मरीज गुर्दे की बीमारी का इलाज कराने के बजाय कोई अन्य इलाज कराता रहता है। गुर्दे की बहुत कम बीमारियों के लक्षण गुर्दे की बीमारियों की तरफ इशारा करते हैं। 
गुर्दे की बीमारी का पता लगाने के लिये रक्त एवं यूरिया परीक्षण किये जाते हैं। करीब 90 प्रतिशत रोगियों में यूरिया के सामान्य परीक्षण से ही यह पता लग जाता है कि गुर्दे में कोई खराबी तो नहीं है। 
गुर्दे की खराबी के इलाज के लिये कुछ नयी कारगर विधियों के विकास की कोशिश हो रही है। इनमें जीन थिरेपी महत्वपूर्ण है। इस थिरेपी की मदद से कई आनुवांशिक बीमारियों से गुर्दे को बचाया जा सकता है।  


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