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कैसे हो दूर आयोडीन की कमी

आयोडीन एक महत्वपूर्ण तत्व है जो मनुष्य के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। एक सामान्य मनुष्य को रोजाना 150 माइक्रोग्राम आयोडीन की जरूरत पड़ती है और इस तरह पूरे जीवन में एक मनुष्य को आयोडीन की आवश्यकता एक चाय चम्मच से भी कम होती है। परन्तु पर्यावरण संबंधी जटिल कारणों से अनेक क्षेत्र के लोगों को आयोडीन की इतनी अल्प मात्रा भी उपलब्ध नहीं हो पाती।
आयोडीन की कमी मनुष्यों और पशुओं दोनों पर घातक प्रभाव डालती है। इनमें घेघा, हाइपोथाइरोयडिज्म, क्रेटिनिज्म, प्रजनन संबंधी गड़बड़ियां, दिमागी मंदता, सुस्ती और बौनापन इत्यादि मुख्य हैं। गर्भवती महिलाएं, दूध पिलाने वाली माताएं तथा 15 साल से कम उम्र के बच्चे आयोडीन की कमी से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। एक अनुमान के अनुसार गर्भवती महिलाओं में आयोडीन की कमी के कारण विश्व में प्रत्येक वर्ष 30 हजार बच्चे मृत पैदा होते हैं जबकि 60 हजार बच्चों की मृत्यु जन्म के तुरंत बाद हो जाती है। इसके अलावा आयोडीन की कमी के कारण विश्व में एक लाख 20 हजार बच्चे जन्म के समय ही मानसिक रोग से ग्रस्त, शारीरिक रूप से अस्वस्थ, मूक-वधिर अथवा लकवे से ग्रस्त होते हैं।
मनुष्य को आयोडीन की आवश्यकता थाईरोक्सिन तथा ट्राई आयोडोथाइरोनीन नामक थाइराॅयड हार्मोनों के संश्लेषण के लिए पड़ती है, जो शरीर और मस्तिष्क दोनों की सामान्य क्रियाओं के लिए आवश्यक होता है। शरीर की कुल आयोडीन का करीब 70-80 प्रतिशत थाइराॅयड ग्रन्थि में रहता है।
थाइराॅयड ग्रन्थि तितली की आकृति की एक संरचना है जो गर्दन के अगले भाग में स्थित होती है और थाइराॅयड हार्मोन उत्पन्न करती है। वयस्क व्यक्ति में सामान्य थाइराॅयड ग्रन्थि का वजन करीब 20 से 25 ग्राम होता है जबकि घेघा (आयोडीन की कमी वाली स्थिति) में इस ग्रन्थि का आकार बढ़ जाता है।
किसी बच्चे को आयोडीन की जरूरत उसी समय से होती है जब वह गर्भ में 12 सप्ताह का होता है और जन्म लेने के बाद दूसरे वर्ष तक उसे आयोडीन की विशेष जरूरत होती है क्योंकि बच्चे के मस्तिष्क के विकास का 90 प्रतिशत कार्य उसी दौरान होता है। इस अवस्था में आयोडीन का प्रभाव सीधे तौर पर भ्रूण की वृद्धि तथा मस्तिष्क विकास पर पड़ता है जिससे बच्चे बौने पैदा होते हैं। हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रत्येक घंटे 10 ऐसे बच्चे का जन्म हो रहा है जो आयोडीन की कमी के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। आयोडीन की कमी बच्चों में सीखने की क्षमता भी घटाती है।
आयोडीन, लोहा, कैल्शियम या विटामिन जैसे पोषक तत्वों की तरह सभी खाद्य सामग्रियों में मौजूद नहीं होती। आयोडीन जल में घुलनशील तत्व है और यह सामान्यतः मिट्टी के उपरी सतह में उपस्थित होती है। आयोडीन वाली मिट्टी में उपजाए गए खाद्य पदार्थों में यह विद्यमान होती है और इस मिट्टी में उगाए गए फसलों से शरीर की आवश्यक आयोडीन की जरूरत पूरी होती रहती है। आयोडीन की कमी मुख्य रूप से वैसे क्षेत्रों में अधिक होती है जहां की मिट्टी में पर्याप्त आयोडीन नहीं होती।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा है कि एक मनुष्य को रोजाना कम से कम 50 माइक्रोग्राम (एक ग्राम का हजारवां हिस्सा) तथा अधिक से अधिक एक हजार माइक्रोग्राम आयोडीन लेनी चाहिए। वयस्क मनुष्य के लिए रोजाना 100 से 300 माइक्रोग्राम आयोडीन पर्याप्त है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों का यह भी सुझाव है कि अधिक मात्रा में ली गई आयोडीन मूत्र के साथ बाहर निकल आती है किन्तु अत्यधिक मात्रा में आयोडीन लेने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है। अधिक आयोडीन खाने से थाइराॅयड ग्रन्थि में गड़बड़ियां उत्पन्न हो जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार आयोडीन की कमी से उत्पन्न होने वाली शारीरिक और मानसिक विकृतियां भारत सहित विश्व के 118 देशों में गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है। अनुमानतः विश्व भर में करीब 157 करोड़ 10 लाख लोग आयोडीन की कमी वाले माहौल में रहते हैं और इनमें से दो करोड़ लोग मानसिक विकलांगता के शिकार हो चुके हैं।
इस समय दक्षिण एशिया के आठ देश भारत, बांग्ला देश, भूटान, बर्मा, इंडोनेशिया, नेपाल, श्रीलंका और थाइलैंड के लोग आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों से सर्वाधिक पीड़ित हैं। इस क्षेत्र में 10 करोड़ से अधिक लोग स्थानिक गलगंड (गलगंड) से तथा 60 लाख लोग क्रेटिनिज्म (अवटुवामनता) से पीड़ित हैं। तीन करोड़ 50 लाख से अधिक लोग वर्तमान में आयोडीन की कमी संबंधी विभिन्न प्रकार की गड़बड़ियों से मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विकलांग हैं। अकेले भारत में ही करीब 15 करोड़ लोग घेघा स्थानिक क्षेत्रों में रहते हैं। हाल के आकलन के अनुसार, इस सदी के अंत में आयोडीन की कमी वाली गड़बड़ियों से प्रभावित लोगों की संख्या 20 करोड़ से अधिक हो जाएगी।
भारत में स्थानिक घेघा और स्थानिक अवटुवामनता (क्रेटिनिज्म) हर वर्ष बहुत बड़े पैमाने पर लाखों व्यक्तियों को अपंग बना रहे हैं। हमारे देश में स्थानिक घेघा जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब (तीन जिले), हरियाणा (एक जिला), बिहार (नौ जिले), उत्तर प्रदेश (चैदह जिले), पश्चिमी बंगाल (पांच जिले), सिक्किम, असम, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड और अरूणाचल प्रदेश राज्य शामिल हैं।
हालांकि देश में लंबे समय से आयोडीन की कमी से उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं की जानकारी है लेकिन इस समस्या की गंभीरता पर कुछ ही वर्षों से ध्यान दिया जा रहा है। आयोडीन की कमी से होने वाली गड़बड़ियों की अंतर्राष्ट्रीय परिषद ने आयोडीन संपूरण के निम्न उपाय सुझाये हैं- आयोडिनीकृत नमक, आयोडिनीकृत तेल, आयोडिनीकृत पानी और लुगोल आयोडीन।
इन उपायों में से भारत के लिए आयोडिनीकृत नमक का उपयोग सबसे सही और आसान विधि है क्योंकि आयोडिनीकृत तेल के इंजेक्शन की विधि में दोष है और आयोडिनीकृत पानी पाइपों के द्वारा सभी क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। इसलिए भारत सरकार ने नमक के सार्वभौम आयोडिनीकरण की विधि का अनुमोदन किया और देश में इस नीति के तहत 1962 में 'घेघा नियंत्रण योजना' (ग्वाॅयटर कंट्रोल प्रोग्राम) की स्थापना की जिसका उद्देश्य आयोडिनीकृत नमक की आपूर्ति करना था। लेकिन बाद में सरकार ने इस नीति में परिवर्तन कर 'राष्ट्रीय घेघा नियंत्रण कार्यक्रम' (नेशनल ग्वाॅयटर कंट्रोल प्रोग्राम) के तहत नमक का व्यापक रूप से आयोडिनीकरण की नीति चलाई। यह योजना अप्रैल 1992 से 'आयोडीन की कमी से उत्पन्न विकारों के नियंत्रण का राष्ट्रीय कार्यक्रम' (नेशनल आयोडीन डेफिसिएंसी डिसआर्डर कंट्रोल प्रोग्राम) में तब्दील कर दी गई जिसका उद्देश्य खाने वाले नमक का व्यापक रूप से आयोडिनीकरण करना है। 
नमक के आयोडिनीकरण के लिए सर्वप्रथम पोटाशियम आयोडाइड का इस्तेमाल किया गया था लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके लिए पोटाशियम आयोडेट का इस्तेमाल किए जाने का सुझाव दिया हैै। इसका कारण यह है कि पोटाशियम आयोडेट किसी भी मौसम तथा वातावरण में खराब नहीं होता। अलग-अलग देश में आयोडीन युक्त नमक की आवश्यकता अलग-अलग होती है, लेकिन एक व्यक्ति को औसतन 5 से 15 ग्राम नमक प्रतिदिन खाना चाहिए।
नमक में पोटाशियम आयोडेट बिना किसी रासायनिक प्रतिक्रिया के बहुत ही सामान्य रूप से मिलाये जाते हैं। नमक में आयोडीन मिलाने से नमक के गंध, स्वाद और रंग पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि किसी क्षेत्र में 12 महीने तक लगातार आयोडिनीकृत नमक उपलब्ध कराने पर वहां के बच्चे मानसिक और शारीरिक रूप से आयोडीन की कमी  से अप्रभावित रहते हैं और वहां के बच्चों की मृत्यु दर भी घट जाती है।


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