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रोगाणुरोधी प्रतिरोधकता में वृद्धि भारतीय हेल्थकेयर के लिए घातक है : डाॅ. संजीव सिंह  

भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक खपत बैक्टीरिया को चिकित्सकों की तुलना में अधिक स्मार्ट बना रही है। बैक्टीरिया अब डाक्टरी पर्चियों पर लिखी दवाइयों को बड़ी चतुराई से मात दे रहे हैं। अगर जरूरी कदम नहीं उठाए गए, तो एक दशक के भीतर सर्जरी करना व्यर्थ साबित हो सकता है क्योंकि कारगर एंटीबायोटिक के बगैर संक्रमण को हराया नहीं जा सकता है।
रोगाणुरोधी प्रतिरोधकता हमारी चरमराती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में उभरी है। अगर इसे युद्ध स्तर पर काबू में करनेे की कोशिश नहीं की गयी, तो भारत जल्द ही दुनिया के रोगाणुरोधी प्रतिरोधकता की राजधानी के रूप में जाना जा सकता है। इसमें अप्रासंगिक मेडिकल और सर्जिकल क्षेत्रों में हुये सभी विकासों को बेकार करने की क्षमता है। अगर ऐसा हुआ हो एंटीबायोटिक उपचार का बेअसर होना सामान्य बात बन जाएगी। 
रोगाणुरोधी प्रतिरोधकता के बढ़ते खतरे के लिए कई कारक योगदान दे रहे हैं। प्राथमिक कारण यह है कि भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग को लेकर कोई नियम - कानून नहीं है। कोई भी व्यक्ति चिकित्सक की पर्ची के बिना ही, यहां तक कि प्रतिबंधित दवाओं को भी पड़ोस के किसी भी फार्मेसी से खरीद सकता है। एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल पशुओं को रोग से मुक्त रखने के लिए पशुपालन में भी धड़ल्ले से किया जा रहा है। इसके अलावा, चिकित्सा की वैकल्पिक प्रणालियों के चिकित्सक भी औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लेने के बावजूद पर्ची पर आम तौर पर उन्हें लिख देते हैं।
भारत में एक लाख से अधिक प्रयोगशालाएं हैं, लेकिन केवल 687 मान्यता प्राप्त हैं। उनमें से अधिकतर प्रयोगशाला गुणवत्ता पूर्ण उपायों का पालन नहीं करते हैं। वे एंटीबायोटिक कल्चर और सेंसिटिविटी पैटर्न के बार में रिपोर्ट में लिखते हैं, जिसका इस्तेमाल चिकित्सक एंटीबायोटिक को लिखने के लिए करते हैं। इसके अलावा, चिकित्सा सूक्ष्म जीव विज्ञानियों की भारी कमी की वजह से, ये रिपोर्टें अक्सर बाईटेक्नीशियन के द्वारा तैयार किये जाते हैं जो  नैदानिक और प्रयोगशाला मानक संस्थान (सीएलएसआई) के द्वारा तैयार दिशानिर्देषों को पालन करने से अनभिज्ञ हैं।
बाजार में उपलब्ध दवाओं की किसी भी प्रकार की गुणवत्ता जांच के अभाव में, 'नाॅट आफ स्टैंडर्ड क्वालिटी' (एनएसक्यू) दवाओं को आम तौर पर बेचा जाता है और इनका सेवन किया जाता है। ये दवाएं खराब प्रतिक्रिया करती है और इनका प्रभाव भी कम होता है, जिसके कारण इन दवाओं को अनुचित और गैर जरूरी लंबे समय तक और अधिक मात्रा में इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है, जो जीवाणुरोधी प्रतिरोधकता पैदा करने में योगदान दे रहे हैं।
एंटीबायोटिक दवाओं की अधिक खपत बड़े पैमाने पर हो रही है। केरल में एक ताजा अध्ययन में पाया गया है कि 89 प्रतिशत चिकित्सक दैनिक आधार पर एंटीबायोटिक दवाओं को लिखते हैं। इसलिए, जब कोई मरीज बीमार होता है, और उसमें ऊपरी श्वसन संक्रमण, दस्त या उल्टी के लक्षण होते हैं - जिससे आम तौर पर प्रकृति में वायरल होने का संकेत मिलता है और इसलिए इसका इलाज एंटीबायोटिक दवाओं से नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इसके बावजूद रोेगी को एंटीबायोटिक का कोर्स लेने की सलाह दी जाती है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ''द लैंसेट इंफेक्षस डिजीजेज'' जर्नल में प्रकाशित 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं की सबसे अधिक मात्रा का सेवन किया जाता है।
शिक्षा और प्रशिक्षण इस समस्या का एक हिस्सा हैं। मेडिकल स्कूलों में स्नातक स्तर पर केवल कंप्रिहेन्सिव फार्माकोकाइनेटिक्स पढ़ाया जाता है। स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में फार्माकोकाइनेटिक्स और दवाओं के फार्माकोडायनामिक्स के बारे में प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है, विशेष रूप से बैक्टीरियारोधी के बारे में कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। यहां 'तर्कसंगत प्रेसक्रिप्सन' के तौर-तरीकों में कोई औपचारिक सुधार नहीं किया जाता है, जिससे क्लिनिशयन अप-टू-डेट हो सकें। चूंकि वे इससे अनजान हैं, इसलिए चिकित्सक पांच 'आर' - सही दवाओं (राइट ड्रग्स), सही खुराक (राइट डोजेज), सही अवधि (राइट ड्यूरेशन), सही आवृत्ति (राइट फ्रिक्वेंसी) और सही संकेत (राइट इंडिकेशन) का पालन करने में विफल रहते हैं, जिससे एंटीबायोटिक दवाओं के अनुचित उपयोग को बढ़ावा मिलता है।
कटु तथ्य यह है कि बैक्टीरिया चिकित्सकों की तुलना में अधिक स्मार्ट होते जा रहे हैं और पर्चे पर लिखी दवाइयों को चालाकी से मात दे रहे हैं। जब तक 5 'आर' प्रथा का पालन नहीं किया जाएगा, सूक्ष्मजीव अपनी जीवन पद्धति में बदलाव लाते रहेंगे और दोबारा इस्तेमाल करने पर रोगाणुुरोधी अप्रभावी होते रहेंगे।
व्यापार की गतिशीलता फार्मा उद्योग के रोगाणुरोधी प्रतिरोध से लड़ने के संकल्प के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहे हैं। नई एंटीबायोटिक दवाओं में निवेश नुकसानदायक साबित हो रहे है। खोज किये गये मोलेकुल के उभरते रोगाणुरोधी प्रतिरोध पैटर्न पर अप्रभावी साबित होने के कारण अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किये गये अरबों डाॅलर को रिकवर करना मुश्किल हो गया है। इसके कारण वर्ष 2000 से दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं के किसी नये फैमिली की खोज नहीं की गयी। एक दशक से भी अधिक समय से, पुरानी एंटीबायोटिक के संयोजन के अलावा, कोई भी नयी एंटीबायोटिक दवा नहीं विकसित हुई है।
यह चुनौती भारत के लिए बेहद कठिन है। देश ग्राम- निगेटिव सूक्ष्मजीवों से पीड़ित है, जो पश्चिमी स्ट्रेन से अलग हैं। इसलिए पष्चिमी षैली की नकल या दिशा-निर्देशों से कोई मदद नहीं मिल सकती है। रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर भारत में नहीं के बराबर अनुसंधान हुए हैं। ग्राम- निगेटिव सूक्ष्मजीवों पर और इस गंभीर मुद्दे से निपटने के लिए एंटीबायोटिक प्रेसक्रिप्शन पैटर्न पर बहुत कम जानकारी प्रकाशित हुई है।
लोगों और निर्माताओं में रोगाणुरोधी प्रतिरोध के बारे में बहुत कम जागरूकता है। भारत में न तो कोई राष्ट्रीय एंटीबायोटिक नीति है, और न ही संक्रमण की रोकथाम की नीति है। अगस्त 2013 में केंद्र सरकार के द्वारा एक राजपत्र अधिसूचना में कहा गया कि 14 एंटीबायोटिक दवाओं और इतनी ही क्षयरोग रोधी दवाओं को जल्द ही प्रतिबंधित किया जाएगा, और फर्मासिस्ट इन्हें सिर्फ तभी बेच पाएंगे जब चिकित्सक की पर्ची में यह लिखी हो और इसकी एक प्रति फार्मेसी में रखी जाएगी। इस प्रावधान को मार्च 2014 में लागू किया जाना था, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है।
हालांकि हाल में इसमें कुछ प्रगति हुई है। इस साल फरवरी में, भारत सरकार और डब्ल्यूएचओ ने रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर एक राष्ट्रीय बैठक बुलायी और चुनौती पर काबू पाने के लिए एक मजबूत प्रतिबद्धता जताई। उपयोगकर्ताओं को सचेत करने के लिए सभी एंटीबायोटिक दवाओं की पैकेजिंग पर लाल लाइन होने का सरकार का जनादेश उत्साहजनक है, लेकिन प्रस्तावित समय में अन्य ठोस कदम उठाना आवश्यक हैं।
सरकार जल्द ही कई उपाय कर सकती है। भारत में एक राष्ट्रीय एंटीबायोटिक और संक्रमण नियंत्रण नीति की जरूरत है जिसे राज्यों में भी पालन किया जाए। इसे निजी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्रों के बीच सहयोगात्मक कार्य के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह के सहयोग का एक उदाहरण केरल में देखा गया है। केरल भारत में एकमात्र राज्य है जिसने एंटीबायोटिक नीति अपनाई है। कोच्चि स्थित अमृता आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईएमएस) ने सक्रिय रूप से दस्तावेज का मसौदा तैयार किया है और राज्य में सभी अस्पतालों और हेल्थकेयर सुविधाओं में एम्स के एंटीबायोटिक नीति और संक्रमण प्रोटोकाॅल और प्रथाओं को लागू करने के लिए सरकार के साथ भागीदारी की है।
शिक्षा के मोर्चे पर, प्रेसक्रिप्सन के तौर-तरीकों में बदलाव लाने के लिए मेडिकल स्कूलों में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर एंटीबायोटिक दवाओं पर प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। साथ ही इसमें नर्सिंग कर्मियों और क्लिनिकल फार्मासिस्ट की भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। काउंसिल ऑफ इंडिया को 'रेशनल प्रिस्क्रिप्शन प्रैक्टिस' पर चिकित्सकों के लिए एक पुनश्चर्या पाठ्यक्रम लागू करने के लिए कदम उठाने चाहिए। इसे सतत चिकित्सा षिक्षा के लिए क्रेडिट घंटे नियम का भी कड़ाई से पालन करना चाहिए। इसके अलावा, उपभोक्ताओं और फार्मासिस्ट को जागरूक करने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान भी चलाया जाना चाहिए कि चिकित्सक के पर्चे के बिना एंटीबायोटिक लेना हानिकारक है। इससे कम खर्च में ही इसके अत्यधिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी।
लंबी अवधि के दौरान, सरकार को बाजार से घटिया गुणवत्ता की दवाओं को हटाने के लिए गुणवत्ता की जांच के लिए एक प्रणाली की स्थापना करने की जरूरत है। जानवरों पर एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग में भी कमी की जानी चाहिए, और भारत में बिल्कुल अलग रोगाणुरोधी प्रतिरोध पैटर्न की जांच शुरू करने के लिए अधिक सहयोग और अनुसंधान करने की जरूरत है। सरकार को हाई-एंड एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए और रेफरल और तृतीयक देखभाल केन्द्रों की पर्ची में इसे कम किया जाना चाहिए। अस्पतालों में उचित स्वच्छता और संक्रमण की रोकथाम प्रथाओं के लिए प्रोत्साहित किया जाना है। भारत में संक्रामक रोग विशेषज्ञों की संख्या में भी वृद्धि करने की आवश्यकता है। (वर्तमान में, दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान अकेला चिकित्सा संस्थान है जहां संक्रामक रोगों में डीएम पाठ्यक्रम की सुविधा उपलब्ध है।) इसके साथ ही, प्रयोगशालाओं को कर्मचारियों और बुनियादी सुविधाओं के मामले में मजबूत किया जाना चाहिए।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध का रुग्णता, मृत्यु दर और देखभाल में खर्च पर सीधा प्रभाव पड़ता है। यदि भारत अभी कोई कारवाई नहीं करता है, तो रोगों से लड़ने की इसकी स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता जल्द ही मुसीबत में पड़ सकती है। अत्यधिक बीमार रोगियों के इलाज के लिए तैयार ऑन्कोलॉजी और प्रत्यारोपण प्रथाएं अगले दो सालों में बंद हो सकती हैं। इससे भी बदतर, अगले दशक में, सर्जरी खुद में ही बेकार साबित हो सकती है क्योंकि एंटीबायोटिक दवाएं आपरेशन के बाद के संक्रमण का इलाज करने में सक्षम नहीं होगी। क्या भारत ऐसी स्थिति को बर्दाश्त कर सकता है?
- डाॅ. संजीव सिंह, पीएचडी, प्रमुख, संक्रमण नियंत्रण, अमृता आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईएमएस), कोच्चि 


 


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