अस्थमा के रोगियों को अपने आहार का चयन करते समय बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है। उचित आहार का सेवन न करने पर उनका अस्थमा बढ़ सकता है जबकि उचित आहार का सेवन कर वे न सिर्फ अस्थमा के गंभीर अटैक से बच सकते हैं, बल्कि स्वस्थ भी रह सकते हैं। अस्थमा के रोगियों में अपने आहार में निम्न खाद्य पदार्थों को शामिल करना चाहिए:
ओमेगा-3 फैटी एसिड युक्त खाद्य पदार्थ - ओमेगा-3 फैटी एसिड केवल हमारे फेफड़ों के लिए ही नहीं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक है। यह अस्थमा के रोगियों को सांस की तकलीफ और घरघराहट के लक्षणों से निजात दिलाता है और उनके स्वास्थ्य में सुधार करता है। यह मेवों और अलसी में पाया जाता है।
पत्तेदार सब्जियां - पत्तेदार सब्जियों में एंटीआक्सीडेंट पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। ये फेफड़ों में मौजूद विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती है। अस्थमा के रोगियों को अपने आहार में पालक, गोभी, ब्रोकली और कोल्हाबी जैसी पत्तेदार सब्जियों को शामिल करना चाहिए।
अनार - फलों में अनार में एंटीआक्सीडेंट सबसे अधिक पाया जाता है। अनार फेफड़ों से विषाक्त पदार्थों को निकालने और शरीर में रक्त परिसंचरण को बढ़ाने में मदद करता है।
केला - रोजाना एक केला का सेवन कर अस्थमा के लक्षणों के विकसित होने के खतरे को 34 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। केला में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक फाइबर होते हैं जो अस्थमा से बचाव करते हैं।
अंगूर - इसमें एंटीआक्सीडेंट और फ्लावोनायड दोनों मौजूद होते हैं। यही नहीं इसमें विटामिन और खनिज भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसलिए यह अस्थमा रोगियों के लिए काफी फायदेमंद है।
सेब - इसमें मौजूद पोषक तत्त्व, फ्लावोनायड, एंटीआक्सिडेंट और विटामिन फेफड़ों की सेहत में सुधार करते हैं जिससे अस्थमा रोगियों में अस्थमा के दौरे पड़ने की आशंका कम हो जाती हैं।
बेरी - बेरी में फ्लावोनायड और फैरोटीनायड एंटीआक्सिडेंट मौजूद होते हैं। ये फेफड़ों से हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करते हैं और फेफड़ों के संक्रमण से बचाव करते हैं। बेरी के तौर पर ब्लूबेरी, रास्पबेरी और ब्लैकबेरी का सेवन किया जा सकता है।
विटामिन सी - विटामिन सी युक्त फलों में भरपूर मात्रा में एंटीआक्सीडेंट होते हैं। संतरे, नींबू, टमाटर, कीवी, स्ट्रॉबेरी, अंगूर, अनानास और आम जैसे फलों में प्रचुर मात्रा में विटामिन सी होती है। इनके सेवन से फेफड़ों सहित शरीर के सभी हिस्सों को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन प्राप्त होता है।
लहसुन - लहसुन में एल्लिसिन नामक तत्त्व पाया जाता है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है। लहसुन में एंटीऑक्सीडेंट गुण भी होते है। जो षरीर और फेफड़ों से धूलयुक्त कणों को दूर करने में मदद करते हैं। लहसुन संक्रमण से लड़ने में मदद करता है। अस्थमा के रोगियों में यह फेफड़ों की सूजन को कम करता है।
अदरक - अदरक प्रदूषण से होने वाली सांस की बीमारियों से बचाव करता है और फेफड़ों की रक्षा करता हैं।
हल्दी - हल्दी में कुरकुमिन नामक तत्त्व पाया जाता है जो फेफड़ों की सूजन को कम करता है और अस्थमा के रोगियों को इसके लक्षणों से निजात दिलाता है।
पानी - पानी पूरे शरीर के साथ-साथ फेफड़ों को हाइड्रेटेड रखता है और फेफड़ों सहित शरीर के सभी अंगों में रक्त परिसंचरण को बढ़ाता है।
होलिस्टिक चिकित्सा से अस्थमा का इलाज
अस्थमा के बारे में प्राचीन काल से ही कहा जाता है कि दमा दम के साथ ही जाता है। आधुनिक चिकित्सा जगत में हुयी प्रगति तथा तमाम चिकित्सकीय कामयाबियों को अंगूठा दिखाता हुआ दमा आज भी लाइलाज बना हुआ है। लेकिन आज होलिस्टिक चिकित्सा, एक्युपंक्चर एवं योग जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां दमा एवं ब्रोंकाइटिस जैसी श्वसन संबंधी बीमारियों के इलाज में कारगर साबित हो रही हैं।
दुष्प्रभाव पैदा करने वाली शक्तिशाली दवाईयों की तुलना में होलिस्टिक चिकित्सा पूर्णतः सुरक्षित, दुष्प्रभावरहित एवं कारगर विकल्प है। होलिस्टिक चिकित्सा में एक्युपंक्चर, जैव उर्जा, रेकी, प्राणिक हीलिंग एवं योग जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है।
होलिस्टिक चिकित्सा वैकल्पिक, प्राकृतिक, प्राचीन और आधुनिक चिकित्सा पद्धति का सम्मिश्रण है। इस पद्धति से इलाज के तहत मरीज के अंदर मौजूद रोगों से लड़ने वाले तत्वों को सक्रिय किया जाता है। इस पद्धति से इलाज के तहत न तो आपरेशन की जरूरत होती है और न ही मरीज को कोई दवा दी जाती है।
एक्युपंक्चर चिकित्सा के तहत त्वचा के कुछ खास बिन्दुओं के स्पंदन (स्टीमुलेशन) से शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यकलापों को प्रभावित किया जाता है। इस चिकित्सा में पूरे शरीर में त्वचा के नीचे अवस्थित एक्युपंक्चर बिन्दुओं में अत्यंत पतली सुईयां चुभोकर रोगों को दूर किया जाता है और शरीर के विभिन्न अंगों की कार्यप्रणालियों को दुरूस्त रखा जाता है। माना जाता है कि ये एक्युपंक्चर बिन्दु ऊर्जा चैनलों पर स्थित हैं। एक्युपंक्चर सुईयों को विद्युत ऊर्जा की मदद से भी स्पंदित किया जा सकता है।
एक्युपंक्चर चिकित्सा के तहत बाल जैसी महीन और नरम तथा कीटाणु रहित स्टीरीलाइज्ड पिनों के ऊपर मौक्सा जड़ी को जलाकर 20 से 30 मिनट तक के लिये छोड़ दिया जाता है। इस दौरान मरीज को संबद्ध अंग में संवेदना होती है और वह तनाव रहित महसूस करता है। कई बार मरीज की जरूरत के अनुसार मोक्सा जड़ी-बूटियों को एक्युपंक्चर बिन्दु के ऊपर सेक दिया जाता है। इस विधि को मोक्सीबस्शन कहा जाता है। सुईयों के जरिये विद्युतीय स्पदंन भी दिया जा सकता है। एक्युपंक्चर चिकित्सा की अन्य विधियों में एक्युप्रेशर, गोलाकार प्रोब से टैपिंग और लेजर का भी इस्तेमाल किया जाता है। ये विधियां बच्चों और सुईयों से डरने वाले लोगों के लिये उपयुक्त है। कई मरीजों में दो-तीन बार के उपचार में ही फायदा नजर आने लगता है लेकिन कई बार रोग को जड़ से निकालने में कई माह लग जाते हैं।
होलिस्टिक चिकित्सा से न सिर्फ दमा का जड़ से सफाया किया जाता है बल्कि इससे रोगी के संपूर्ण स्वास्थ्य में भी आश्चर्यजनक सुधार होता है जिससे उसका जीवन आनन्दमय हो जाता है। इस पद्धति से दमा का इलाज कराने से छात्र, शारीरिक श्रम करने वाले लोग, घरेलू महिला और बड़े-बूढ़े लोगों - हर किसी को समान रूप से फायदा होता है। लेकिन मरीजों को होलिस्टिक चिकित्सा के सुयोग्य एवं प्रशिक्षित विशेषज्ञों के पास ही जाना चाहिये अन्यथा लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है।
(नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ होलिस्टिक मेडिसीन विशेषज्ञ डा. रविन्द्र कुमार तुली से बातचीत पर आधारित)
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