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बुजुर्गों में बढ़ रहा है पार्किंसन रोग>

चालीस-पचास साल की उम्र जीवन के ढलान की शुरूआत अवश्य है लेकिन इस उम्र में अपने जीवन के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंचा व्यक्ति पार्किंसन जैसे स्नायु रोग के कारण अपाहिज जिंदगी जीने को विवश हो जाता है। पार्किंसन की बीमारी दिमागी कोशिकाओं को नष्ट करके न केवल सोचने-विचारने एवं स्मरण की शक्ति को कुंद कर देती  हैं बल्कि रोजमर्रे के काम करने में भी अक्षम बना देती हैं। मरीज एक तरह से लुंजपुज बना देने वाली इस बीमारी से पूरी दूनिया की आबादी में से आधे प्रतिशत लोग अर्थात हर 200 लोगों में से एक व्यक्ति पीड़ित है। मौजूदा समय में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण पार्किन्सन रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है। एक अनुमान के अनुसार भारत में तकरीबन छह लाख लोग पार्किंसन से पीड़ित हैं। केवल अमरीका में यह बीमारी हर साल करीब 50 हजार लोगों को मानसिक एवं शारीरिक तौर पर अपंग बना देती है। पार्किंसन की बीमारी आम तौर पर 40 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन करीब 20 प्रतिशत मरीजों में यह बीमारी 20 साल की उम्र के बाद ही आरंभ हो सकती है। 
पार्किन्सन के लिये प्रदूषण, मांसाहार, मादक दवाइयों के सेवन और मस्तिष्क की चोट को जिम्मेदार माना जाता है लेकिन अभी तक इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बीमारी दुर्घटनाओं तथा मुक्केबाजी जैसे खेलों में दिमाग को चोट पहुंचने से भी हो सकती है। पूर्व मुक्केबाज चैम्पियन मोहम्मद अली को भी पार्किसन्न से ग्रस्त बताया जाता है। पार्किन्सन के रोगी को हालांकि पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता लेकिन समुचित उपचार की बदौलत  मरीज सामान्य जिंदगी जी सकता है। 
पार्किंसन के लक्षण
पार्किंसन का सबसे आरंभिक लक्षण यह है कि हाथ-पैर रूके होने पर अपने आप हिलने लगते हैं लेकिन काम करने पर ठीक हो जाते हैं। अन्य लक्षणों में दोनों या एक हाथ में कंपन आना, कसाव हो जाना, पीठ झुक जाना, पैरों का जम जाना, उनका आगे नहीं बढ़ पाना, चलते-चलते अचानक गिर पड़ना या डगमगाने लगना और चलते-चलते अचानक पीछे की ओर झुक जाना आदि शामिल है।
पार्किन्सन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि मरीज जब बात करता है तो उसके चेहरे पर कोई अभिव्यक्ति नहीं होती। वह चाहे किसी भी तरह की बात क्यों न करे उसके चेहरे में  कोई फर्क नहीं आता। इस स्थिति को मास्क क्लाइव कहा जाता है। ऐसा लगता है कि मरीज कोई मुखौटा पहने हुये हो। पार्किंसन के मरीजों की याददाश्त एवं सोचने-समझने की शक्ति में कमी आ सकती है। वे डिप्रेशन से ग्रस्त हो सकते हैं। उनकी सक्रियता कम हो जाती है। वे हमेशा सुस्त-सुस्त दिखते हैं। मरीज को कोई काम करने की इच्छा नहीं होती है।
पार्किंसन का उपचार
पार्किन्सन रोग के इलाज का सबसे सरल तरीका यह है कि मरीज को जिस रसायन की कमी है  वह मरीज को दिया जाये। पार्किन्सन के इलाज के लिये डोपामिन नामक दवा का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। यह एक रसायन है जो विश्व के विभिन्न देशों में अलग-अलग ब्रांड नामों से मिलता है। डोपामिन देने से मरीज के मस्तिष्क में डोपामिन जमा होने लगता है और पार्किन्सन के मरीज को राहत मिलने लगती है। लेकिन पार्किन्सन रोग में दवाइयां 80 प्रतिशत मरीजों पर कोई असर नहीं कर पाती हैं। जैसे-जैसे मरीज की उम्र बढ़ती जाती है दवाइयों का असर घटता जाता है इस कारण उम्र बढ़ने के साथ दवा की खुराक बढ़ायी जाती है। कुछ मरीजों में अधिक समय तक दवाइयों के सेवन के दुष्प्रभाव भी देखे गये हंै। इन दुष्प्रभावों के कारण कुछ मरीजों के हाथ-पैर बहुत तेजी से हिलने लगते हैं।
आपरेशन का विकल्प
जो रोगी दवाइयों से ठीक नहीं हो पाते हैं अथवा जिन पर दवाइयों के दुष्प्रभाव होते हैं उनका इलाज आपरेशन किया जाता है। ये आपरेशन पिछले 60-70 सालों से इस्तेमाल हो रहे हैं। आपरेशन के जरिये मस्तिष्क के अंदर कुछ खास-खास स्थानों पर चोट पहुंचायी जाती है। पहले किये जाने वाले आपरेशन के तहत मस्तिष्क के भीतर इंजेक्शन के जरिये एक विशेष रसायन पहुंचाया जाता था। इस रसायन के प्रभाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा गल जाता है और रोगी ठीक हो जाता है। एक अन्य तरह के आॅपरेशन के तहत मस्तिष्क के अंदर एक गर्म सलाई डाली जाती है। इसकी मदद से मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को जला दिया जाता है। आधुनिक समय में मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को रेडियो तरंगों की मदद से भी जलाया जाता है।
हाल के अनुसंधानों से पता चला कि पुराने तरह के आॅपरेशनों की मदद से मस्तिष्क के भीतर सही-सही जगह पर पहुंचना संभव नहीं हो पाता है जिससे मरीज को स्थायी फायदा नहीं होता है। ऐसे आपरेशन के बाद मरीज को अक्सर दोबारा पार्किन्सन होने का खतरा रहता है। कई मरीजों को ऐसे आपरेशनों का दुष्प्रभाव भी होता है। इसके बाद वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्से की ब्रेन रिकार्डिंग  करने का तरीका विकसित किया। इसके अलावा एक और नयी पद्धति का विकास हुआ जिसमें पेसमेकर सरीखा एक इलेक्ट्रोड मस्तिष्क के अंदर डाल दिया जाता है। इसे ठीक जगह पर पहुंचा कर करंट छोडी़ जाती है जिससे वहां के स्नायुओं का धु्रवीकरण समाप्त हो जाता है और इन स्नायुयों की गतिविधियां पहले जैसी हो जाती है। लेकिन इन तकनीकों की सफलता मस्तिष्क में सही-सही छेद करने और सही जगह पर पहंुचने पर निर्भर करती है।
पार्किंसन का आधुनिक उपचार
पार्किंसन के इलाज के लिये हाल के दिनों में गामा नाइफ पर आधारित एक नायाब तरीका विकसित हुआ है। इसके लिये न तो मस्तिष्क को खोलना पड़ता है और न ही छेद करना पड़ता है। पहले के आपरेशनों के तहत मस्तिष्क को खोल कर ही वांछित जगह पर पहुंचते थे। मस्तिष्क को खोलने पर रक्तस्राव एवं संक्रमण होने की आशंका बनी रहती है।
गामा नाइफ की मदद से पार्किन्सन के इलाज के लिये एम आर आई नियंत्रित गाइडेंस की मदद ली जाती है। एम आर आई से प्राप्त मस्तिष्क की तस्वीरों को कम्प्यूटर में डालकर विश्लेषण किया जाता है और इस विश्लेषण के आधार पर उस जगह का सही-सही पता लगाया जाता है जहां गामा नाइफ दी जानी होती है। गामा नाइफ की मदद से वांछित जगह पर रुग्न स्नायुओं को जला दिया जाता है। यह पाया गया है कि कई मरीजों को तो आपरेशन से तुरंत फायदा पहुंच जाता है लेकिन कई मरीजों को नुकसान पहुंचने का भी खतरा रहता है। परम्परागत आॅपरेशन से हाथ-पैर की गतिविधियों को संचालित करने वाले हिस्से को भी चोट पहुंच सकती मस्तिष्क के जिन-जिन हिस्से से होकर गुजरता है उन हिस्सों को नुकसान पहुंचने की आशंका होती है। लेकिन गामा नाइफ के साथ इलाज करने पर इस तरह का कोई खतरा नहीं होता क्योंकि गामा नाइफ करने में न तो मस्तिष्क में कोई छेड़छाड़ करने की और न ही उसमें किसी बाहरी वस्तु को प्रवेश कराने की जरूरत होती है। इसलिये यह तकनीक पूरी तरह से दुष्प्रभाव रहित है। इतना अवश्य है कि इससे कुछ मरीजों को पूरा फायदा होता है जबकि कुछ मरीजों को उतना फायदा नहीं हो पाता है।
यह समझ लेना चाहिये कि गामा नाइफ या अन्य आपरेशनों से मरीज को फायदा पहुंचने का अर्थ यह नहीं है कि मरीज बिल्कुल चंगा हो जायेगा बल्कि इसका अर्थ यह है कि मरीज को या तो कम दवाइयां देनी पड़ेगी या मरीज पहले जितनी दवाइयों में ही सामान्य महसूस करेगा और मरीज जीवन के कुछ और वर्ष सामान्य तरीके से जी सकेगा। आॅपरेशन या गामा नाइफ से इलाज के बाद मरीज को पहले जो दवाइयां फायदा नहीं करती थी वे दवाइयां फायदा पहुंचाने लगती हैं या जो दवाइयां पहले वह बर्दाश्त नहीं कर पाता था वह अब बर्दाश्त कर लेता है। इस तरह मरीज दवाइयों की मदद से आसान एवं सामान्य जीवन जी पाने योग्य हो जाता है जो आपरेशन या गामा नाइफ बगैर संभव नहीं था।


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