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ढलती उम्र की बढ़ती त्रासदी

संयुक्त परिवार के विघटन, व्यस्तता, उपभोक्तावाद, आर्थिक और युवा पीढ़ी की आत्म केन्द्रित सोच के कारण वृद्धों को समाज और परिवार के हाशिये पर ढकेल दिया गया है। समाज और परिवार के लिए वे अवांक्षित, अनुपयोगी और बोझ समझे जाने लगे हैं। इस कारण घर-परिवार में वृद्धों के साथ दुव्र्यवहार बढ़ने लगा है। उन्हें मानसिक तौर पर प्रताड़ित और घर-परिवार से बेदखल किया जाने लगा है, जिससे उनकी मानसिक त्रासदियों में भारी वृद्धि हुई है।
हमारे देश में कुछ साल पहले तक संयुक्त परिवार की प्रथा थी लेकिन हाल के वर्षों में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आने से संयुक्त परिवार का विघटन होने लगा है। इस विघटन का सबसे अधिक दुष्प्रभाव घर के वृद्धों पर पड़ा है। 
संयुक्त परिवार की व्यवस्था में, व्यवसाय में, घर के सभी सदस्यों का सामूहिक योगदान होता था और इससे प्राप्त आय का उपयोग परिवार के सभी सदस्यों पर किया जाता था। व्यवसाय की देखभाल और इससे प्राप्त आय का लेखा-जोखा, सम्पत्ति की देखभाल, घर के सदस्यों की शिक्षा, बीमारी, शादी आदि की जिम्मेदारी घर के सबसे बुजुर्ग और समझदार पुरुष सदस्य की होती थी। इन्हें घर का मुखिया कहा जाताा था। घर के मुखिया को घर एवं परिवार के बारे में अपनी मर्जी से कोई भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता होती थी एवं घर के सभी सदस्य उनका सम्मान करते थे।
धीरे-धीरे युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने से इन बुजुर्गों की हैसियत और उन्हें मिलने वाली इज्जत कम होने लगी। संयुक्त परिवार के विघटन के बाद तो इनका कोई महत्व ही नहीं रह गया है। हालांकि अधिकतर वृद्ध अभी भी अपने परिवार के साथ ही रहते हैं, पर उन्हें परिवार में एक आश्रित सदस्य के रूप में रहना पड़ता है। कुछ परिवारों में तो इनके साथ बहुत ही खराब व्यवहार किया जाता है। कुछ परिवारों में वृद्ध लोगों को घर से निकाल दिया जाता है और मजबूरन उन्हें वृद्ध आश्रमों की शरण लेनी पड़ती है।
वृद्ध लोगों पर पारिवारिक दुव्र्यवहार का बहुत खराब प्रभाव पड़ता है। वे शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से अस्वस्थ हो जाते हैं। वृद्धावस्था में वैसे भी नेत्र संबंधी समस्याएं मुख्यतः मातियाबिंद उत्पन्न हो जाती है। इसके अलावा तंत्रिका, हृदय, श्वसन, त्वचा, श्रवण एवं मूत्र संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ मनोविकार और मानसिक बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। वृद्धों के साथ दुव्र्यवहार होने से मानसिक अस्वस्थता की दर और भी बढ़ जाती है। अध्ययनों में पाया गया है कि 60 से 70 वर्ष के वृद्धों में मानसिक अस्वस्थता 71.5 प्रतिशत, 70 से 80 वर्ष तक की उम्र वाले वृद्धों में 124 प्रतिशत तथा 80 वर्ष से अधिक आयु वर्ग वाले वृद्धों में 155 प्रतिशत होती है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद की ओर से मनोविकार से ग्रस्त 150 वृद्धों पर किए गए एक अध्ययन में 16 प्रतिशत व्यक्तियों में उन्माद की प्रवृत्ति देखी गई। इनमें अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, हाइपर फोबिया तथा भावात्मक अस्थिरता जैसे लक्षण सामान्य रूप से पाए गए। जबकि 75 प्रतिशत रोगियों में हिंसात्मक उत्तेजना पाई गई। 70 प्रतिशत वृद्धों में अधिक चिंता, 3 प्रतिशत वृद्धों में वैचारिक पलायन, 94 प्रतिशत में तीव्र उन्माद की प्रवृत्ति तथा 3 प्रतिशत वृद्धों में श्रवण संबंधी दोष पाए गए। इनमें से 63 प्रतिशत लोगों में 60 वर्ष की आयु से पूर्व तथा 37 प्रतिशत में 60 वर्ष की आयु के बाद उन्माद का पहला हमला हुआ था।
वृद्धों में 60 वर्ष के बाद आम तौर पर अवसाद की प्रवृत्ति भी पायी जाती है। हालांकि अवसाद की शुरूआत 60 वर्ष से पहले ही हो जाती है। 60 वर्ष से पहले इस रोग के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं, परन्तु 60 वर्ष के बाद धीरे-धीरे इसके लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अवसाद की प्रवृत्ति अधिक होने पर वृद्ध आत्महत्या की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। 
आम तौर पर वृद्ध लोग आर्थिक विपन्नता, आत्म सम्मान में गिरावट, निराशावादिता, खराब स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और शादी  की समस्या, घर में बेरोजगारी की समस्या, एकाकीपन आदि के कारण आत्महत्या का फैसला करते हैं। कुछ वृद्ध पीड़ादायक और असाध्य रोगों के कारण जबकि कुछ वृद्ध परिवार को अपने बोझ से मुक्त करने के लिए भी आत्महत्या कर लेते हैं।
चूंकि वृद्धों में मानसिक और शारीरिक रोग एक दसूरे से संबद्ध रहते हैं, इसलिए मानसिक तनाव का असर शरीर के अन्य भागों पर भी पड़ता है। वैसे भी उम्र बढ़ने  के साथ-साथ शरीर के कई अंगों जैसे दिल, फेफड़े, गुर्दे आदि की कार्यक्षमता कम होने लगती है। यह कमी कुछ हद तक उस अंग की कोशिकाओं के नष्ट होने के कारण होती है। इसके अलावा बाकी कोशिकाएं भी उतनी कुशलता पूर्वक कार्य नहीं कर पाती हैं जितना वे शरीर की युवावस्था में करती थीं। इस तरह धीरे-धीरे कोशिकाएं खत्म होने लगती हैं।
शरीर विज्ञानियों के अनुसार बढ़ती उम्र का असर शरीर के विभिन्न तंत्रों पर अलग-अलग पड़ता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ दिल की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जाती हैै। 65 की उम्र के बाद होने वाली मौतों में से 50 प्रतिशत मौत दिल की बीमारियों के कारण होती है। परीक्षणों से पाया गया है कि दिल की धड़कन बढ़ती उम्र में कम तो नहीं होती है परन्तु हर धड़कन के साथ हृदय की पेशियां उतनी जल्दी नहीं सिकुड़ती हैं। अतः उम्र बढ़ने के साथ हृदय की कार्यक्षमता में भी कमी आने लगती है। कार्यक्षमता में यह कमी एक खास एंजाइम की कमी के कारण होती है जिससे पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है। आम तौर पर 90 वर्ष की उम्र तक हृदय द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में भेजे जाने वाले रक्त की मात्रा में 50 प्रतिशत की कमी आ जाती है। बढ़ती उम्र के साथ रुधिर वाहिकाओं का लचीलापन भी कम हो जाता है, इससे अधिक प्रवाह के प्रति वाहिकाओं का प्रतिरोध बढ़ जाता है जिससे रक्तचाप में वृद्धि हो सकती है। हालांकि इन परिवर्तनों के बावजूद, यदि हृदय में कोई बीमारी न हो तो वह अपनी जिम्मेदारी भली-भांति निभा सकता है।        
तंत्रिका तंत्र में उम्र बढ़ने के साथ कोई खास परिवर्तन नहीं होता है। हालांकि उम्र के बढ़ने पर मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं में कुछ कमी हो जाती है परन्तु तंत्रिका कोशिकाएं इतनी विशाल संख्या में होती हैं कि अल्प मात्रा में इनकी कमी से मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पर कोई खास असर नहीं पड़ता है।
उम्र बढ़ने के साथ-साथ हड्डियां धीरे-धीरे कैल्शियम खोने लगती हैं। परिणामस्वरूप वे अधिक नाजुक हो जाती हैं और उनके जल्दी टूटने की संभावना रहती है। वृद्धों में हड्डी जुड़ने की प्रक्रिया भी युवाओं के मुकाबले धीमी गति से होती है। इसके अलावा बढ़ती उम्र के साथ जोड़ों की गतिशीलता भी कम होती जाती है और आर्थराइटिस की संभावनाएं ज्यादा हो जाती हैं। 
वृद्धावस्था की इन मानसिक और शारीरिक कष्टों को बेहतर चिकित्सकीय सुविधा, सद्व्यवहार और देखभाल के जरिये दूर किया जा सकता है। लेकिन साथ ही हमें उनके प्रति अपने नजरिये में भी बदलाव लाना होगा। हमें समझना होगा कि बुढ़ापा कोई रोग या बोझ नहीं, जीवन की एक अवस्था है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे हम सब को साक्षात्कार करना है। 


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