स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दिवाली के दौरान दमा और दिल के मरीजों को पटाखों से दूर रहने तथा सावधानी बरतने की अपील करते हुए कहा है कि पटाखों से निकलने वाले धुंये, रसायन एवं तेज आवाज के कारण दमा, नाक की एलर्जी, ब्रोंकाइटिस, दिल के दौरे, रक्तचाप और निमोनिया के खतरे कई गुणा बढ़ जाते हैं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार पटाखों के कारण दीवाली के बाद वायु प्रदूषण छह से दस गुना और आवाज का स्तर 15 डेसिबल तक बढ़ जाता है जिसका पर्यावरण एवं स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। तेज आवाज वाले पटाखों से निकलने वाले धुंये, रसायन और गंध का सबसे ज्यादा असर हृदय रोगियों, दमा और सांस के मरीजों, बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है इसलिये इन लोगों को खास तौर पर सावधानी बरतनी चाहिये। यह देखा गया है कि दिवाली के बाद इन बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की संख्या दोगुनी हो जाती है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने लोगों को पटाखों का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी है। सीएसई के शोधकर्ता विवेक चट्टोपाध्याय के अनुसार पटाखा चलाकर मिलने वाला अस्थायी लुत्फ थोड़ी देर बाद ही वायु प्रदूषण में बदल जाता है क्योंकि पटाखों से खतरनाक गैसें निकलती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।
दिल तथा दमा के मरीजों के लिए दिवाली का समय न केवल पटाखों के कारण बल्कि अन्य कारणों से भी मुसीबत भरा होता है। दिवाली से पहले अधिकतर घरों में रंग-रोगन कराया जाता है घरों की सफाई की जाती है। लेकिन रंग की गंध, घरों की मरम्मत और सफाई से निकलने वाली धूल दमा के रोगियों के साथ-साथ सामान्य लोगों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकती है। उनके अनुसार पटाखों से निकलने वाले धुएं, रसायन और गंध दमा के रोगियों के लिए घातक साबित होते हैं। इसलिए दिवाली के दिन और उसके बाद के कुछ दिनों में भी दमा के रोगियों को हर समय अपने पास इनहेलर रखना चाहिए और पटाखों से दूर रहना चाहिए। इन दिनों उनके लिए सांस लेने में थोड़ी सी परेशानी या दमे का हल्का आघात भी घातक साबित हो सकता है।
यह देखा गया है कि दिवाली के समय वायु प्रदूषण में वृद्धि होने के कारण लोगों में अस्थमा गंभीर रूप ले रहा है और साथ ही साथ वयस्कों में भी अस्थमा के नए मामले सामने आ रहे हैं। यही कारण है कि सभी वर्ग की आबादी में अस्थमा के मामलों में वृद्धि होती है।
चिकित्सकों के अनुसार मौजूदा समय में प्रदूषण के अलावा शहरीकरण के कारण कम व्यायाम, अधिक वजन, धूम्रपान और तनाव जैसी अस्वास्थ्यकर जीवनशैली बढ़ रही है। ये सभी कारक लोगों में अस्थमा के मामले को बढ़ा रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार दुनिया भर में 23 करोड़ 50 लाख लोगों के अस्थमा से पीड़ित होने का अनुमान है। इससे हमें यह संकेत भी मिलता है कि अस्थमा सिर्फ अधिक आय वाली आबादी के लिए ही एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या नहीं है, बल्कि यह सभी तरह की आबादी वाले समूहों में होता है चाहे उसका विकास का स्तर कुछ भी हो। इस अध्ययन से पता चलता है कि अस्थमा के कारण होने वाली 80 प्रतिशत से अधिक मृत्यु निम्न और निम्न-मध्यम आय वाली आबादी में होती है।
यदि अस्थमा के इलाज और पहचान पर जागरूकता पैदा नहीं की जाएगी तो समय के साथ, भविष्य में अस्थमा के मामलों की दर का अंदाजा लगाना मुश्किल हो सकता है और इसकी दर कहीं अधिक हो सकती है। अधिकतर मामलों में, अस्थमा का प्रकोप बचपन से लेकर वयस्क अवस्था तक जारी रहता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मरीज का उचित उपचार नहीं होता और उनके रोग का सही प्रबंधन नहीं हो पाता है। हालांकि, इसके लिए जिम्मेदार कारण का युवा अवस्था में ही इलाज करने पर इसे आसानी से रोका जा सकता है।
जिन लोगों में 30 साल की उम्र के बाद अस्थमा की पहचान होती है उनमें दिल का दौरा और स्ट्रोक का अतिरिक्त खतरा होता है। कुल 1369 रोगियों पर किए गए एक शोध से पता चला है कि अस्थमा मुक्त लोगों के मुकाबले देर से अस्थमा की पहचान होने वाले लोगों में हृदय रोग संबंधी बीमारियां होने का खतरा 57 प्रतिशत अधिक होता है।
अस्थमा की रोकथाम में जहां तक संभव हो मुख्य रूप से एलर्जी से बचना चाहिए। अस्थमा के मामले या दौरे को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उपचार के लिए दी गई सलाहों का पालन किया जाए। साथ ही, अस्थमा को बढ़ाने वाले कारकों (ट्रिगर्स) के बारे में जानना और उनसे दूर रहना और साथ ही अस्थमा के अटैक से दूर रहना जरूरी है। उदाहरण के लिए, धूल के संपर्क में आने पर नाक को ढक कर रखने पर मदद मिल सकती है। मानसिक आराम भी उपयोगी है। इसका जड़ से कोई इलाज उपलब्ध नहीं है।
दमा के मरीज की देखरेख एवं बीमारी को नियंत्रण में रखने में षीघ्र जांच तथा जल्द से जल्द सही इलाज की षुरूआत की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन अस्थमा के कई मरीज अक्सर दमे के दौरे का खतरा उठाते हैं। दमे का दौरा पड़ने पर अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत होती है तथा दमे का दौरा कई बार घातक भी हो सकता है। ऐसे में मरीजों कों दमे के लक्षणों को झेलना पड़ता है तथा इससे मरीज के जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
उपचार शुरू होने के चार से छह हफ्तों में ही 80 प्रतिशत मरीजों की हालत में सुधार हो जाता है लेकिन लगभग 20 प्रतिषत मरीजों की हालत में सुधार नहीं होता है। ऐसी स्थिति को ''गंभीर अस्थमा'' कहा जाता है। इसके अलावा कई मरीज जब थोड़ा अच्छा महसूस करने लगते हैं तो वे इनहेलर लेना या तो बंद कर देते हैं या कम कर देते हैं। इससे गंभीर स्थिति पैदा होती है तथा इससे अस्थमा बिगड़ जाता है।
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