दुर्लभ बीमारियों को किसी दिए गए देश में जनसंख्या पर आधारित पीड़ित रोगियों की संख्या से परिभाषित किया गया है। दुर्लभ बीमारी की परिभाषा पर कोई आम सहमति नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी दुर्लभ बीमारी के होने की आवृत्ति की अनुमानित विश्वसनीय आंकड़े को प्राप्त करने, जैसे कि दुर्लभ बीमारी के प्रसार के आंकड़े को प्राप्त करने के लिए प्रायः अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। किसी दुर्लभ बीमारी की परिभाषा की सीमा और उसकी अनियंत्रित प्रकृति की पहचान करने के लिए, हम विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा परिभाषित परिभाषा का उपयोग कर सकते हैं: दुर्लभ बीमारी एक ऐसी बीमारी है जिसका किसी भी देश या क्षेत्र में प्रसार 10,000 लोगों में से 1 से कम हो। अगर हमारे पास गहराई से डेटा उपलब्ध हो, तो यह परिभाषा बदलने की आवश्यकता हो सकती है।
अनुमान लगाया गया है कि दुनिया भर में लगभग 7000 दुर्लभ रोग हो सकते हैं, हालांकि इस अनुमान का आधार अस्पष्ट है। भारत में केवल 400 दुर्लभ रोगों का दस्तावेजीकरण किया गया है। इन रोगों के निदान के बारे में समस्या को देखते हुए, संख्या मोटे तौर पर अनुमान के मुताबिक ही प्रतीत होती है। बच्चे दुर्लभ बीमारियों से सबसे अधिक पीड़ित होते हैं, क्योंकि लगभग 50 प्रतिषत रोगी 5 वर्ष के आयु वर्ग से कम के हो सकते हैं। हालांकि ये रोग व्यक्तिगत रूप से कभी- कभार ही हो सकते हैं, लेकिन ये सभी एक साथ मिलकर अलग- अलग आबादी के 5-7 प्रतिषत को प्रभावित कर सकती हैं, ये भारत के लिए भी लागू हो सकते हैं।
80 प्रतिषत से अधिक दुर्लभ रोगों में एक आनुवंशिक आधार होता है। यह जटिल आनुवंशिकता के साथ कई जीनों की भागीदारी से उत्पन्न सामान्य मेंडेलियन आनुवांषिकता के मोनोजेनिक के अनुसार अलग- अलग होता है। समस्या इस तथ्य से जुड़ी है कि यहां तक कि एक ही रोग के लिए एक ही जीन में उत्परिवर्तन की व्यापक विविधता होती है। इसके कारण इसके निदान में काफी समस्याएं आती है। इसके अलावा, इन रोगों में से अधिकतर रोगों के लिए कोई चिकित्सा उपलब्ध नहीं है जिसके कारण रोग और मृत्यु दर अधिक हो सकती है। कई दुर्लभ रोग रोगजनकों के कारण हो सकते हैं। हालांकि कई लोग इन रोगजनकों से संक्रमित होते हैं, लेकिन केवल कुछ लोगों में इसके लक्षण प्रकट होते हैं।
दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित रोगियों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याएं अज्ञानता के कारण होते हैं। इन बीमारियों को लेकर न केवल आम जनता में, बल्कि क्लिनिकल और अनुसंधान कर्मियों में भी अज्ञानता है। इन बीमारियों के कम संख्या में होने के कारण इनके निदान के तरीकों और इलाज विकसित करने में कंपनियों में रुचि नहीं है जिसके कारण रोगियों के लाभ के लिए नए तरीकों और प्रौद्योगिकियों के उद्भव में बाधा उत्पन्न हो रही है। इसके अलावा, कठोर और कड़े विनियामक तंत्र इलाज को प्रयोगशाला से रोगियों तक तेजी से आने की अनुमति नहीं देता है। चूंकि इन रोगों में से अधिकांश रोग डिजनरेटिव हैं, इसलिए रोगियों को उचित उपचार नहीं मिलने पर रोगियों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जाती है।, हालांकि एक रोग से दूसरे रोग के कारकों मंे अंतर होता है,, इसलिए एक इलाज सभी रोगों के प्रबंधन के लिए काम नहीं कर सकता है।
दुर्लभ रोगों के रोगियों की सहायता करने के लिए एक रणनीति विकसित करने के लिए, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली में 22 से 23 अप्रैल, 2016 तक एक कार्यशाला आयोजित की गई थी। बैठक में डॉ. वी. एम. काटोच, एफएनए, पूर्व डीजी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद एवं सचिव, स्वास्थ्य अनुसंधान; डॉ. पी. पी. मजूमदार, एफएनए, नेशनल बायोमेडिकल जीनोमिक्स इंस्टीट्यूट, कल्याणी और प्रोफेसर आलोक भट्टाचार्य, एफएनए, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेस एंड स्कूल ऑफ कम्प्यूटेशनल एंड इंटिग्रेटिव साइंसेस, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली उपस्थित थे। कार्यशाला का उद्घाटन प्रोफेसर पी.एन. टंडन ने किया और इसमें इस क्षेत्र में काम करने वाले और दुनिया भर से 100 से अधिक चिकित्सकों, शोधकर्ताओं, सरकारी अधिकारियों, फार्मा उद्योग और गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों, मरीजों और छात्रों ने भाग लिया।
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