मध्य प्रदेश में जानलेवा होता वायु प्रदूषण, लोगों के जीवनकाल में कम हो गए 3.6 वर्ष

एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के अनुसार भोपाल, भिंड, मुरैना के लोग क्रमशः 3 वर्ष, 7.6 वर्ष और 6.7 वर्ष ज्यादा जी सकते थे, अगर वायु गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के अनुरूप होती


भोपाल: शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका की शोध संस्था 'एपिक' (Energy Policy Institute at the University of Chicago-EPIC) द्वारा तैयार 'वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक' (Air Quality Life Index - AQLI) का नया विश्लेषण दर्शाता है कि मध्य प्रदेश में  वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति राज्य के नागरिकों की जीवन प्रत्याशा  (Life Expectancy) औसतन 3.6 वर्ष कम करती है, और जीवन प्रत्याशा में उम्र बढ़ सकती है अगर यहां के वायुमंडल में प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों एवं धूलकणों की सघनता 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर (विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताया गया सुरक्षित मानक) के सापेक्ष हो। एक्यूएलआई के आंकड़ों के अनुसार भोपाल के लोग 3 वर्ष ज्यादा जी सकते थे, अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) के दिशानिर्देशों को हासिल कर लिया जाता। वर्ष 1998 में, इसी वायु गुणवत्ता मानक को पूरा करने से जीवन प्रत्याशा में 1.5 साल की बढ़ोतरी होती। लेकिन भोपाल राज्य में प्रदूषित जिलों की सूची में शीर्ष पर नहीं है। मध्य प्रदेश के अन्य जिले और शहर के लोगों का जीवनकाल घट रहा है और वे बीमार जीवन जी रहे हैं। उदाहरण के लिए भिंड के लोगों के जीवनकाल में 7.6 साल की बढ़ोतरी होती, अगर वहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का अनुपालन किया जाता। इसी तरह मुरैना, शिवपुर, सतना, शिवपुरी, टीकमगढ़ और सिंगरौली भी इस सूची में पीछे नहीं हैं, जहां के लोगों की जीवन प्रत्याशा में क्रमशः 6.7 वर्ष, 4.4 वर्ष, 4.2 वर्ष, 4.2 वर्ष, 4.2 वर्ष, और 3.9 वर्ष की वृद्धि होती, अगर लोग स्वच्छ और सुरक्षित हवा में सांस लेते।


दरअसल वायु प्रदूषण पूरे भारत में एक बड़ी चुनौती है, लेकिन उत्तरी भारत के गंगा के मैदानी इलाके (Indo-Gangetic Plain), जहां बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख राज्य और केंद्र शासित प्रदेश आते हैं, में यह स्पष्ट रूप से अलग दिखता है। वर्ष 1998 में गंगा के मैदानी इलाकों से बाहर के राज्यों में निवास कर रहे लोगों ने उत्तरी भारत के लोगों के मुकाबले अपने जीवनकाल में करीब 1.2 वर्ष की कमी देखी होती, अगर वायु की गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक को अनुरूप हुई होती। अब यह आंकड़ा बढ़ कर 2.6 वर्ष हो चुका है, और इसमें गिरावट आ रही है, लेकिन गंगा के मैदानी इलाकों की वर्तमान स्थिति के मुकाबले यह थोड़ी ठीकठाक है।


एक्यूएलआई के अनुसार भारत के उत्तरी क्षेत्र यानी गंगा के मैदानी इलाके में रह रहे लोगों की जीवन प्रत्याशा करीब 7 वर्ष कम होने की आशंका है, क्योंकि इन इलाकों के वायुमंडल में 'प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों से होने वाला वायु प्रदूषण' यानी पार्टिकुलेट पॉल्यूशन (Particulate Pollution) विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय दिशानिर्देशों को हासिल करने में विफल रहा है। शोध अध्ययनों के अनुसार इसका कारण यह है कि वर्ष 1998 से 2016 में गंगा के मैदानी इलाके में वायु प्रदूषण 72 प्रतिशत बढ़ गया, जहां भारत की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी रहती है। वर्ष 1998 में लोगों के जीवन पर वायु प्रदूषण का प्रभाव आज के मुकाबले आधा होता और उस समय लोगों की जीवन प्रत्याशा में 3.7 वर्ष की कमी हुई होती।


इन निष्कर्षों की घोषणा 'एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स' के मंच पर इसके हिंदी संस्करण में विमोचन करने के दौरान की गई, ताकि वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक उस 'पार्टिकुलेट पॉल्यूशन' पर अधिकाधिक नागरिकों और नीति-निर्माताओं को जागरूक और सूचनासंपन्न बना सके, जो पूरी दुनिया में मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है।


शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्राइडमैन प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर और एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (EPIC) के निदेशक डॉ माइकल ग्रीनस्टोन ने कहा कि ''एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के हिंदी संस्करण की शुरुआत के साथ, करोड़ों लोग यह जानने-समझने में समर्थ हो पाएंगे कि कैसे पार्टिकुलेट पॉल्यूशन उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है, और सबसे जरूरी यह बात जान पाएंगे कि कैसे वायु प्रदूषण से संबंधित नीतियां जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में व्यापक बदलाव पैदा कर सकती हैं।''


अगर भारत अपने 'राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम' (National Clean Air Program-NCAP) के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रहा और वायु प्रदूषण स्तर में करीब 25 प्रतिशत की कमी को बरकरार रखने में कामयाब रहा, तो 'एक्यूएलआई' यह दर्शाता है कि वायु गुणवत्ता में इस सुधार से आम भारतीयों की जीवन प्रत्याशा औसतन 1.3 वर्ष बढ़ जाएगी। वहीं उत्तरी भारत के गंगा के मैदानी इलाकों में निवास कर रहे लोगों को अपने जीवनकाल में करीब 2 वर्ष के समय का फायदा होगा।


आज दिल्ली में 'एक्यूएलआई' के हिंदी संस्करण के विमोचन के अवसर पर माननीय सांसद और 'वैश्विक युवा नेता, विश्व आर्थिक मंच' (Young Global Leader, World Economic Forum) श्री गौरव गोगोई ने कहा कि ''अव्वल दर्जे की रिसर्च यह संकेत करती है कि वायु प्रदूषण में कमी और जीवनकाल में वृद्धि के बीच स्पष्ट संबंध है। स्वच्छ वायु की मांग के लिए नागरिकों के बीच जागरूकता बेहद महत्वपूर्ण है और एक्यूएलआई सही दिशा में एक कदम है। मैं 1981 के वायु अधिनियम (Air Act) में संशोधन के लिए संसद में एक निजी विधेयक प्रस्तावित कर रहा हूं, जो बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण पैदा हो रहे स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों को रेखांकित करता है।''


एक्यूएलआई से संबंधित स्टडी समकक्ष-विशेषज्ञों के मूल्यांकन एवं अध्ययनों पर आधारित है, जिसे प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन और सह-लेखकों एवं शोधार्थियों की टीम ने चीन के 'यूनिक नैचुरल एक्सपेरिमेंट' (Unique Natural Experiment) से प्रेरित होकर तैयार किया है, जो चीन के 'हुएई रिवर विंटर हीटिंग पॉलिसी' से जुड़ी है। इस 'प्राकृतिक प्रयोग' ने उन्हें वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों को अन्य कारकों से अलग करने का मौका दिया, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं और इसी क्रम में उन्होंने भारत तथा उन देशों में यह अध्ययन किया, जहां आज प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों की सघनता सबसे ज्यादा है। फिर उन्होंने इन अध्ययनों के परिणामों को विविध क्षेत्रों में बेहद स्थानीय स्तर पर 'वैश्विक सूक्ष्म प्रदूषक मापदंडों' (Global Particulate Pollution Measurement) के साथ संयुक्त रूप से जोड़ दिया। इससे उपयोगकर्ताओं को दुनिया के किसी क्षेत्र या जिले से संबंधित आंकड़ों पर दृष्टिपात करने का अवसर मिलता है और उनके जिले में स्थानीय वायु प्रदूषण के स्तर से उनके जीवन प्रत्याशा पर पड़ रहे प्रभावों को समझने में मदद मिलती है।