नई दिल्ली: डेयरी क्षेत्र में दूध के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली ऑक्सीटोसिन के दुरुपयोग को रोकने के लिए, भारत सरकार ने आक्सीटोसिन के उत्पादन की जिम्मेदारी विषेश तौर पर केएपीएल (कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड) को सौंपी है।
इस दवाई का उपयोग प्रसव के दौरान बच्चे को जन्म देने वाली माताओं को होने वाले रक्त स्राव को रोकने के लिए किया जाता है। जीवन रक्षक दवाई के रूप में आॅक्सीटोसिन के महत्व को देखते हुए, आईएमए सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग करता है क्योंकि यदि सरकार अपना निर्णय वापस लेती है तो हजारों लोगों की जान बचाई जा सकेगी।
आईएमए के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सांतनु सेन कहते हैं, ''आईएमए को पशु चिकित्सा संबंधी उद्देश्यों के लिए ऑक्सीटोसिन के निर्माण की जिम्मेदारी केएपीएल को दिए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इस जीवन रक्षक दवा के निर्माण पर रोक लगाने से इस दवाई की उपलब्धता में कमी आएगी और अनावश्यक अड़चन पैदा होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस दवाई को आवश्यक दवाओं की सूची में सूचीबद्ध किया है और इस नाते, सिर्फ एक कंपनी को इस दवाई के निर्माण की अनुमति देने से बच्चे के जन्म के बाद रक्तस्राव होने के कारण कई माताओं के जीवन को खतरा हो सकता है तथा रुग्णता और मृत्यु दर में वृद्धि हो सकती है।”
जीवन रक्षक दवा होने के नाते, गर्भवती महिलाओं को भी प्रसव के दौरान और बाद में रक्तस्राव को नियंत्रित करने के लिए ऑक्सीटोसिन दिया जाता है। अब तक, अधिकांश पशु चिकित्सा उपयोग के लिए इस दवा को अवैध रूप से पड़ोसी देशों से आयात किया जाता रहा है और आईएमए का मानना है कि इसके निर्माण को रोकना तर्कसंगत समाधान नहीं है।
आईएमए के मानद महासचिव डॉ. आर. वी. अशोकन ने कहा, “दिलचस्प बात यह है कि कंपनी केएपीएल के पास इतनी बड़ी जिम्मेदारी संभालने का न तो अनुभव है और न ही क्षमता है। कंपनी के रिकॉर्ड के अनुसार, किसी भी थोक उत्पादन में 4 साल का समय लगेगा, तो सवाल यह उठता है कि क्या सार्वजनिक क्षेत्र की कोई एक कंपनी पूरे देष की आॅक्सीटोसिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम है। आईएमए का कहना है कि अगर ऑक्सीटोसिन की कमी होती है और इस कमी के दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम सामने आते हैं तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी।''
दुनिया भर में गर्भावस्था और प्रसव के कारण होने वाली मौतों में से 20 प्रतिषत मौतें केवल भारत में होती है। भारत में हर साल 56 हजार ऐसी मौतें होती है। नवीनतम आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि पोस्ट पार्टम हेमरेज (पीपीएच) भारत में मातृ मृत्यु दर के लगभग 22 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है और इसलिए डॉक्टरों और प्रसूति रोग विशेषज्ञों को इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त करना स्वाभाविक है।
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