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गलत खान-पान ने बढ़ाया मायोपिया का प्रकोप


मायोपिया का संबंध आनुवांशिक कारणों से ही नहीं बल्कि खान-पान एवं रहन-सहन के तौर-तरीकों से भी है। हाल के अनुसंधानों से पता चला है कि जंक फूड एवं बे्रड जैसे शोधित स्टार्च युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन बढ़ने के कारण मायोपिया का प्रकोप बढ़ रहा है। मायोपिया की परिणति कई बार रेटिनल डिटैचमेंट, ग्लूकोमा और नेत्राअंधता जैसी खतरनाक स्थितियों के रूप में हो सकती है इसलिए इसके इलाज में किसी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिये।
हमारे देश में खान-पान एवं रहन-सहन की पश्चिमी शैलियांे के अंधाधुंध नकल के कारण न केवल मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्त चाप और हृदय रोग जैसी बीमारियों का बल्कि मायोपिया जैसे दृष्टि दोषों का प्रकोप भी तेजी से बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने अपने ताजा अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला है कि बे्रड जैसे शोधित स्टार्च युक्त खाद्य पदार्थों और जंक फूड का सेवन बढ़ने के कारण मायोपिया का प्रकोप बढ़ रहा है। इस बारे में शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि मायोपिया अथवा निकट दृष्टि दोष का खतरा किताबों को अधिक पास रखकर पढ़ने की तुलना में ब्रेड के अधिक सेवन से ज्यादा बढ़ता है। 
वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रेड जैसे शोधित स्टार्च से भरपूर आहार के सेवन से बच्चों में इंसुलिन का स्तर बढ़ता है। उनका कहना है कि इससे नेत्रा गोलक का विकास प्रभावित होता है। यह निष्कर्ष अमरीका के फोर्ट कोलिंस स्थित कोलोराडो स्टेट युनिवर्सिटी और आस्ट्रेलिया के युनिवर्सिटी आॅफ सिडनी के वैज्ञानिकों की टीम ने अपने नये अनुसंधान से निकाला है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक हार्मोन के कारण नेत्रा गोलक असामान्य रूप से लंबा होता जाता है और इससे मायोपिया होता है। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अपने शोध के निष्कर्ष के  आधार पर वे पिछले 200 वर्षों में विकसित देशों में मायोपिया के बहुत अधिक बढ़ने के कारणों की व्याख्या कर सकते हैं। 
मायोपिया में दूर की वस्तुयें स्पष्ट नहीं दिखती हैं। उनके अनुसार मायोपिया में नेत्रा गोलक का आकार सामान्य से कुछ बड़ा हो जाने अथवा सिलियरी मांसपेषियों के रुग्न हो जाने के कारण नेत्रा लेंस का नाभ्यांतर (फोकल लेंथ) कुछ छोटा हो जाता है। इस कारण वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल(रेटिना) पर नहीं बनकर थोड़ा आगे बनता है जिससे दूर की वस्तुयें देखने में कठिनाई होती है। नयी दिल्ली के दरियागंज स्थित चैधरी आई सेंटर एंड लेजर विजन के निदेशक डा. संजय चैधरी का कहना है कि मायोपिया की परिणति कई बार रेटिनल डिटैचमेंट, ग्लूकोमा और नेत्राअंधता जैसी खतरनाक स्थितियों के रूप में हो सकती है। 
मायोपिया और खान-पान के संबंधों के बारे में हुये अनुसंधान में शामिल युनिवर्सिटी आॅफ सिडनी के पोषण वैज्ञानिक जेनी ब्रांड मिलर का कहना है कि आधुनिक तरीके से शोधित बे्रड और कुछ अनाज के सेवन से स्टार्च का पाचन बहुत तेजी से होता है। इस तेज पाचन की प्रतिक्रिया में हमारा शरीर पैंक्रियाज से अधिक मात्रा में इंसुलिन उत्सर्जित करता है। उनका कहना है कि यूरोपीय आबादी में मायोपिया का प्रकोप बहुत अधिक होने का कारण वहां ब्रेड का सेवन बहुत अधिक होना है। यूरोपीय देशों में करीब 30 प्रतिशत लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं।
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अधिक इंसुलिन के कारण इंसुलिन जैसे बंधक प्रोटीन - 3 के स्तर में गिरावट होती है जिससे नेत्रा, नेत्रा गोलक की लंबाई तथा नेत्रा लेंस के विकास के बीच का समन्वय प्रभावित होता है। नेत्रा गोलक के बहुत अधिक लंबा हो जाने पर लेंस का फोकल लंेथ छोटा हो जाता है जिससे लंेस वस्तुओं के प्रतिबिम्ब को दृष्टिपटल (रेटिना) पर फोकस नहीं कर पाते हैं और दूर की वस्तुयें देखने में कठिनाई होती है। 
इन वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि अधिक शारीरिक वजन वाले लोगों तथा मधुमेह के मरीजों को मायोपिया होने का खतरा अधिक होता है। निकट दृष्टि दोष उन बच्चों में भी धीरे-धीरे बढ़ता है जिनमें प्रोटीन की खपत अधिक होती है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार उन समुदायों में निकट दृष्टि दोष कम है जिन्होंने खान-पान की पश्चिमी शैली को नहीं अपनाया है। 
लोगों को मायोपिया तथा उसके इलाज की आधुनिक चिकित्सा विधियों की जानकारी देने के लिये स्पेक्टकल्स रिमूवल डाॅट काॅम नामक वेब साइट आरंभ करने वाले डा. संजय चैधरी का कहना है कि गलत खान-पान के अलावा रहन-सहन की गलत शैलियां भी मायोपिया जैसे दृष्टिदोषों को बढ़ावा दे रही है। आज कम व्यायाम करने तथा बैठ कर देर तक टेलीविजन देखने और कम्प्यूटर पर काम करने की प्रवृतियां बढ़ रही है। आज टेलीविजन एवं कम्प्यूटर जैसे इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण शहरी लोगों खासकर बच्चों में मायोपिया, आंखों में खिंचाव (स्ट्रेन) एवं आंख दर्द की समस्यायें तेजी से बढ़ रही हैं। आज खास तौर पर शहरों में बच्चों पर एक तरफ तो पढ़ाई का बोझ बढ़ा है, दूसरी तरफ खेल-कूद जैसे मनबहलाव के परम्परागत तौर-तरीकों का स्थान टेलीविजन, वीडियो गेमों एवं कम्प्यूटरों ने ले लिया है। आंखों पर बहुत अधिक जोर डालने वाले मनोरंजन के आधुनिक तौर-तरीकों, पढ़ाई तथा निकट से किये जाने वाले अन्य कार्यों की वजह से आंखों से जुड़ी सिलियरी कोशिकाओं में खिंचाव पैदा होता है। टेलीविजन, वीडियो एवं कम्प्यूटर जैसी पास रखी वस्तुओं को देखने के लिये सिलियरी कोशिकाओं को सिकुड़ना पड़ता है ताकि नेत्रा लेंस का पावर बढ़ जाये और निकट की वस्तुयें दिखाई पड़े। इन कोशिकाओं में बार-बार बहुत अधिक खिंचाव होने पर आंखों के रंजित पटल (कोराॅइड) में फैलाव होता है और नेत्रा गोलक बड़ा हो जाता है जिससे मायोपिया उत्पन्न होती है।
मायोपिया और उसकी उल्टी स्थिति अर्थात हाइपरमेट्रोपिया और एस्टिगमेटिज्म के इलाज के लिये आम तौर पर चश्में तथा कांटैक्ट लेंस का ही प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन अब इसका इलाज एक्जाइमर लेजर, लैसिक लेजर और सी लैसिक की नयी तकनीक की मदद से भी होने लगा है। दृष्टिदोषों के इलाज की लेजर तकनीक के विशेषज्ञ डा. संजय चैधरी बताते हैं कि मायोपिया के इलाज के लिये प्रयुक्त लेजर किरणें ऊतकों को जलाती या काटती नहीं हंै, बल्कि यह कोशिकाओं के बीच में आणविक बन्धनों को तोड़कर और आस-पास के हिस्से को नुकसान पहुंचाये बगैर ऊतकों को तराश देती हंै और काॅर्निया का घुमाव बदल देती हैं ताकि रोशनी पर्दे पर ठीक से केन्द्रित हो सके। आॅपरेशन के दौरान मरीज को कोई दर्द नहीं होता है, सिर्फ उसे 10-90 सेकण्ड तक एक लाइट को लगातार देखना होता है। 


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