प्रजनन, यौन क्रिया और मूत्र त्याग में मुख्य भूमिका निभाने वाली प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार में उम्र बढने के साथ सामान्य तौर पर वृद्धि होती है लेकिन यह वृद्धि मूत्र त्याग में कठिनाई समेत अनेक समस्याओं का कारण बन जाती है। इसका आरंभिक अवस्था में इलाज नहीं होने पर गुर्दे में खराबी आ सकती है। चिकित्सकीय भाषा में इस स्थिति को बिनायन प्रोस्टेटिक हाइपरलैसिया अथवा बिनायन प्रोस्टेटिक हाइपरट्रोफी (बी. पी. एच.) कहा जाता है।
किसी व्यक्ति के जीवनकाल में प्रोस्टेट ग्रंथि विकास के दो चरणों से गुजरती है। इसके विकास का पहला चरण किशोरावस्था के आरंभ में होता है। इस दौरान इस ग्रंथि का आकार दोगुना हो जाता है। करीब 25 वर्ष की उम्र से प्रोस्टेट ग्रंथि दोबारा बढ़ने लगती है। दूसरे दौर का यही विकास बाद में बिनायन प्रोस्टेटिक हाइपरट्रोफी (बी.पी.एच.) का कारण बन जाता है। आम तौर पर 45 वर्ष की उम्र से पहले बिनायन प्रोस्टेटिक हाइपरट्रोफी (बी.पी.एच.) के कोई लक्षण नहीं प्रकट होते हैं। लेकिन 60 साल की उम्र के 50 प्रतिशत से अधिक लोगों को तथा 70 एवं 80 साल के 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को बिनायन प्रोस्टेटिक हाइपरट्रोफी (बी.पी.एच.) के कोई न कोई लक्षण प्रकट होते हैं।
प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार में बढ़ोतरी होने पर इसके चारों ओर के ऊतकों की परत इसे फैलने से रोकती है। इससे प्रोस्टेट ग्रंथि का मूत्रमार्ग (यूरेथ्रा) पर दबाव पड़ता है।
अनेक लोग प्रोस्टेट की समस्याओं को छिपाते हैं। लेकिन यह समस्या उम्र के साथ सिर के बालों के सफेद होने की तरह सामान्य एवं स्वभाविक है। इसलिये प्रोस्टेट ग्रंथि की समस्याओं को छिपाने के बजाय इसका जल्द से जल्द इलाज कराना चाहिये।
पुरुषों के शरीर में ताउम्र नर हार्मोन टेस्टोस्टेरोन और कुछ मात्रा में मादा हार्मोन बनते हैं। उम्र बढ़ने के साथ रक्त में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर घटने लगता है और इस्ट्रोजेन हार्मोन का अधिक निर्माण होता है। प्रोस्टेट ग्रंथि में इस्ट्रोजेन की अधिक मात्रा हो जाने के कारण बी.पी.एच. की उत्पत्ति होती है इससे कोशिकाओं का विकास करने वाले पदार्थों की गतिविधियां बढ़ जाती है।
इसके अलावा प्रोस्टेट ग्रंथि में टेस्टोस्टेरोन से डिहाइड्रोट्स टेस्टेरोन (डी.टी.एच.) नामक पदार्थ निकलता है जो प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार में वृद्धि पर नियंत्रण लगाने में मदद करता है। ज्यादातर जीव उम्र बढ़ने के साथ डी.टी.एच. के उत्पादन की क्षमता खोते हैं। हालांकि रक्त में टेस्टोस्टेरोन के स्तर में गिरावट के बावजूद बुजुर्ग लोग प्रोस्टेट ग्रंथि में डी.एच.टी. की अधिक मात्रा संग्रहित करने में सक्षम होते हैं। जिन लोगों के शरीर में डी.एच.टी. का निर्माण नहीं होता है उन्हें बी.पी.एच. की समस्या नहीं होती है।
मूत्रमार्ग में रूकावट की तीव्रता अथवा लक्षण प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार पर निर्भर नहीं करते हैं। जिन लोगों की प्रोस्टेट ग्रंथि काफी बड़ी होती है उन्हें कम दिक्क्त होती है जबकि कुछ लोगों को प्रोस्टेट ग्रंथि में कम वृद्धि होने के बावजूद अधिक दिक्कत होती है। कुछ लोगों को इस समस्या का आभास अचानक उस समय होता है जब वे मूत्रत्याग करने में पूरी तरह असमर्थ हो जाते हैं। यह स्थिति एलर्जी अथवा ठंड से बचाव की दवाई लेने पर और तीव्र हो जाती है।
इस समस्या की जांच के लिये डिजिटल रेक्टल परीक्षण किया जाता है। इससे चिकित्सक को प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार की सामान्य जानकारी मिल जाती है। इसकी अधिक पुष्टि के लिये प्रोस्टेट स्पेसिफिक एंटीजन रक्त परीक्षण किया जाता है। इस परीक्षण से इस बात का भी पता चल जाता है कि मरीज की प्रोस्टेट ग्रंथि में कैंसर है या नहीं।
प्रोस्टेट ग्रंथि में वृद्धि के कारण मरीज पूरा मूत्र नहीं निकाल पाता और मसाने में कुछ मूत्र रह जाता है जिसके शीघ्र संक्रमित हो जाने का खतरा रहता है। मसाने में बचे मूत्र के संक्रमित हो जाने का असर गुर्दे पर पड़ता हैं ऐसी अवस्था में मरीज का आपरेशन के जरिये जल्द से जल्द इलाज किया जाना आवश्यक होता है। मसाने में बचे मूत्र का गुर्दे पर दबाव पड़ता है जिससे गुर्दे फूलने लगते हैं और इलाज नहीं होने पर कुछ समय बाद गुर्दे काम करना बंद कर सकते हैं।
एक समय प्रोस्टेट ग्रंथि की इस समस्या को दूर करने के लिये आपरेशन का सहारा लेना पड़ता था जिसमें काफी चीर-फाड़ करनी पड़ती थी। लेकिन पिछले 25 वर्षों के बाद में टीयूआर-पी (ट्रांस यूरेथ्रल रिसेक्शन आफ प्रोस्टेट) नामक तकनीक की मदद से यह आपरेशन होने लगा जिसमें मूत्र नली के जरिये औजार डालकर बिजली की मदद से प्रोस्टेट ग्रंथि को काट कर बाहर निकाल दिया जाता है। इसके अलावा आजकल ट्रांस यूरेथ्रल इंसिजन आफ द प्रोस्टेट (टी.यू.आई.पी.) नामक सर्जरी का भी इस्तेमाल होता है लेकिन ये दोनों तकनीकें भी दुष्प्रभावों से युक्त है और इनकी अनेक सीमायें हैं।
आजकल मरीज को लेजर आधारित तकनीक की मदद से प्रोस्टेट की समस्या से छुटकारा दिलाना संभव हो गया है। इस तकनीक में होलमियम लेजर का इस्तेमाल होता है। इस तकनीक में होलमियम लेजर की मदद से प्रोस्टेट ग्रंथि की सभी अवरोधक ऊतकों को वाष्पित कर दिया जाता है जिससे मूत्र नली की रुकावट दूर हो जाती है। लेजर मशीन से आपरेशन करने पर रक्त की हानि नहीं के बराबर होती है, रोगी को बहुत कम कष्ट होता है और उसे एक या दो दिन अस्पताल में रहने की जरुरत पड़ती है। लेजर आपरेशन के तत्काल बाद मरीज सामान्य काम-काज करने में सक्षम हो जाता है। यह तकनीक गंभीर मरीजों के अनूकूल है।
लेजर तकनीक का इस्तेमाल प्रोस्टेट ग्रंथि में वृद्धि के अलावा मूत्र थैली के कैंसर, मूत्र नली के सिकुड़ने, बाहरी जननांगों की रसौली एवं पथरी जैसी समस्याओं के इलाज के अलावा खतना (सरकमसिशन) के लिये भी हो सकता है। प्रोस्टेट ग्रंथि की समस्याओं के इलाज के लिये लेजर तकनीक के अलावा रेडियो तरंगों का भी इस्तेमाल होने लगा है। आजकल इन समस्याओं के इलाज के लिये रोटो रिसेक्शन नामक अत्याधुनिक तकनीक का विकास हुआ है।
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