जलवायु परिवर्तन से निपटने की पहल

दक्षिण एशिया क्षेत्र के अनेक देशों की साझा संस्कृति व समान भौगोलिक आयाम हैं लेकिन वे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए साझा दृष्टिकोण अपनाने से दूर हैं।
दुनिया भर में अब मानव-गतिविधियों से पैदा जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ८ वैश्विक कार्रवाई के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। इसमें सरकारों, बिजनेसों, सिविल सोसाइटी तथा आम जनता की सहभागिता शामिल है। 2011 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समितिआईपीसी ने एक विशेष रिपोर्ट जारी की थी जिसका संबंध जलवायु परिवर्तन के कारण आत्यन्तिक घटनाओं के जोखिम से निपटना शामिल था। इसने जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया। इसके बाद जनता ने जलवायु परिवर्तन का खतरा समझा जिसके कारण सारी दुनिया में मौसम खराब होने की घटनाओं की गंभीरता व बारंबारता बढ़ी। 
राष्ट्रीय सरकारों की पेरिस समझौते के अनुसार ज्यादा जिम्मेदारी है, पर क्षेत्रीय पहलें भी जरूरी हो गई हैं। निसंदेह ग्रीनहाउस गैस-जीएचजी व खासकर कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन रोकने के प्रयास होने चाहिए। लेकिन भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और खतरों के बारे में सारी चीजें अभी ठीक से नहीं समझी गई हैं। पोप फ्रांसिस ने 'जीवधारियों की देखभाल में विश्व प्रार्थना दिवस' पर संदेश देते हुए कहा है कि 'यह मौसम हमें अपनी जीवनशैली तथा भोजन, उपभोग, परिवहन, पानी के प्रयोग, ऊर्जा व अनेक अन्य भौतिक वस्तुओं पर विचार के लिए उपयुक्त है जो अक्सर विचारहीन व हानिकारक हो सकती हैं। हममें से बहुत से लोग जीवधारियों के प्रति अत्याचारियों के रूप में काम करते हैं।' दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में जीवनशैली अत्यधिक उपभोक्तावाद तथा ज्यादा से ज्यादा कचरा पैदा करने की ओर बढ़ रही है। यह बात विकसित व विकासशील देशों, दोनों के लिए सही है। अनेक समाज अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक जड़ों को अनदेखा करते हुए आंख बंद कर ऐसी जीवनशैलियां स्वीकार कर रहे हैं जिनको विकसित देशों, खासकर अमेरिका ने स्थापित किया है। ऐसे में समाजों को अपने भीतर झांक कर देखने तथा अपनी संस्कृति के अनुकूल जीवनशैली अपनाने की आवश्यकता है। इसके लिए जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप समान समस्याओं का सामना करने वाले देशों के साथ सहयोग के नए अवसर खुले हैं। प्रकृति भौगोलिक बाधायें नहीं स्वीकार करती है। लेकिन अनेक देश जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए समान लक्ष्य देखने तथा एकसाथ काम करने में विफल रहते हैं । 
दक्षिण एशिया एक ऐसा ही क्षेत्र है जो गरीबी की अनदेखी से पैदा यथार्थ नहीं देख रहा है, जबकि इसके कारण जलवायु परिवर्तन का संकट और गंभीर हो जाता हैआईपीसी ने अपनी पांचवीं आंकलन रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा था कि 'जलवायु परिवर्तन प्रकृति तथा मानव व्यवस्थाओं के लिए वर्तमान खतरों के साथ नए खतरे भी पैदा कर रहा है। इन खतरों का वितरण असमान है तथा आमतौर से यह विकास के सभी स्तरों पर वंचित लोगों व समुदायों के लिए और गंभीर हो जाता है।' इसमें यह भी कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन से लोगो के विस्थापन का खतरा बढ़ा है तथा कुछ


लोग 'मौसम में आत्यन्तिक परिवर्तनों के कारण नुकसान का सामना करेंगे। विकासशील देशों तथा गरीब लोगों पर इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। इसके साथ ही गरीबी व आर्थिक झटकों के साथ जलवायु परिवर्तन के कारण हिंसक टकरावों का खतरा भी बढ़ जाता है। - दक्षिण एशिया में साझा संस्कृति और इतिहास है तथा वह जलवायु परिवर्तन के खतरों की अत्यधिक आशंका वाला क्षेत्र है। यदि हम अफगानिस्तान से भारत के दक्षिणी छोर तक भूमि पर गौर करें तथा श्रीलंका व मालदीव को इससे बाहर रखें तो यह लगभग 1.75 बिलियन लोगों की भूमि है। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय प्रभावों में तेजी से वृद्धि हुई है। पता चला है कि तापमान में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होने पर गेंहूं की उत्पादकता पर सात प्रतिशत प्रभाव पड़ सकता है, जबकि 3 डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि होने पर यह 24 प्रतिशत हो सकती है। दक्षिण एशिया मौसम में आत्यन्तिक परिवर्तनों का शिकार है जिनकी बारंबारता व गंभीरता बढ़ती जा रही है। इसके कारण मानव स्वास्थ्य, सुरक्षा, आजीविका व गरीबी पर प्रभाव पड़ सकता है। आईपीसीसी ने लू चलने, भारी बरसात, बाढ़ व सूखे की घटनाओं में वृद्धि का अनुमान लगाया था। इनमें से कुछ के कारण दस्तरोग, डेंगू व मलेरिया से होने वाली मौतों की संख्या बढ़ जाती है। इस क्षेत्र में जल की अधिकांश सप्लाई करने वाले मानसून में परिवर्तन के कारण अत्यधिक या बहुत कम बरसात जैसी घटनायें हो सकती हैं। इनके कारण वर्षा-आधारित तथा अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उत्पादकता प्रभावित हो सकती है। दक्षिण एशिया में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा निचले स्तर के समुद्र तटीय क्षेत्रों व बाढ़ वाले मैदानों में रहता है। समुद्र जल स्तर में वृद्धि से यह संकट का शिकार हो सकती है। चूंकि श्रीलंका और मालदीव जैसे द्वीप देशों को दक्षिण एशिया की मुख्यभूमि की तुलना में अलग समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसलिए वर्तमान समय में हमें उनके लिए अलग प्रयासों व पहलों की आवश्यकता है। लेकिन अभी दक्षिण एशिया में समान सरोकार के मुद्दों पर सहयोग की भावना मोटेतौर से गायब है। इस क्षेत्र में जनसंख्या के अधिक घनत्व को देखते हुए बड़ी संख्या में मनुष्यों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पड़ेंगे जो दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में अधिक होंगे।


दक्षिण एशिया आतंकवाद से गंभीर रूप से प्रभावित है जिसे कुछ देशों ने सरकारी नीति के रूप में बढ़ावा दिया है। यह स्पष्ट है कि आतंकवाद को पैदा करने और उसका समर्थन करने वाले देशों पर भी इसका गंभीर व दीर्घकालीन खतरा मौजूद है। यदि वे अपनी जनता के कल्याण के प्रति गंभीर हों तो उनको आतंकवाद छोड़ना होगादुर्भाग्य से क्षेत्र के कुछ देशों के बीच गंभीर राजनीतिक मतभेद हैं, पर जलवायु परिवर्तन की साझा चुनौतियों को देखते हुए उनको सबके हित में परस्पर लाभदायक गतिविधियों के माध्यम से शत्रुतापूर्ण व विवादास्पद मुद्दों से ऊपर उठना होगा। इस प्रकार की पहल में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल व पाकिस्तान में लागत-प्रभावी उपायों की आवश्यकता होगी।


विकासशील देशों के वार्ताकार कई साल से संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन-यूएनएफसीसी में 'साझा पर अलग-अलग जिम्मेदारियों' पर काम कर रहे हैं। हालांकि, ऐतिहासिक रूप से जीएचजी का उच्च स्तर पर उत्सर्जन करने वाले देशों को विकासशील देशों की तुलना में इनको घटाने के ज्यादा प्रयास करने होंगे। विकसित देशों को तार्किक रूप से ज्यादा वित्तीय संसाधन विकासशील देशों को देने चाहिए ताकि वे जलवायु परिवर्तन पर सामूहिक कार्रवाई को मजबूत कर सकें। लेकिन दुर्भाग्य से इन मांगों के पीछे छिपे सिद्धान्तों को विकसित देशों ने भुला दिया है। दक्षिण एशिया के देशों को सामूहिक रूप से उन परियोजनाओं के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए जिनका वित्तपोषण औद्योगिक देशों को करना है। दक्षिण एशिया में पवन ऊर्जा प्रयोग की संभावनायें असाधारण हैं और वह इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय सीमाओं के पार वैज्ञानिक व आर्थिक रूप से सहयोग कर सकता हैक्या दक्षिण एशिया के नेता वर्तमान तनावों और राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठ कर अपनी वंचित जनसंख्या के हित में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर काम करेंगे जो लगातार गंभीर होते जा रहे हैं? शायद एक शुरुआत के रूप में इस विषय को हाल ही में स्थापित दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय में शोध एवं एडवोकेसी के तौर पर लिया जा सकता है।


आर के पचौरी (लेखक जलवायु परिवर्तन अंतरशासकीय समिति के पूर्व अध्यक्ष हैं)