अधिकतर भारतीय महिलाओं के लिए घर ही उनके प्राथमिक कार्यस्थल होते हैं। जगह की कमी, पर्याप्त वेंटिलेशन और प्रकाश का अभाव तथा शौचालय का अभाव उनकी कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसके अलावा कई महिलाओं का अपने घरों पर कोई अधिकार नहीं होता और वे अपने पति, ससुराल वालों, मकान मालिक और म्युनिसिपल प्राधिकरण की दया पर वहां रह पाती हैं। हालांकि महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा पर बहुत कम आंकड़ा उपलब्ध है।
कार्यस्थल का प्रतिकूल वातावरण
राष्ट्रीय आयोेग ने 1988 में विभिन्न निकायों में स्वरोजगाररत महिलाओं और अनौपचारिक निकायों में काम कर रही महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य पर एक विस्तृत अध्ययन किया। आयोग ने हाल के वर्षों में स्थितियों में थोड़ा अंतर पाया। कई व्यवसायों में महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। ब्लाॅक प्रिंटिंग, स्क्रिन प्रिंटिंग, डाईंग, बीड़ी निर्माण, बेकार पदार्थों के निपटारे और फटे-पुराने कपड़ों को उधेड़ने जैसे कामों में महिलाएं काफी संख्या में जुड़ी होती हैं और उन्हें इनसे निकलने वाले विषैले रसायनों और रोगजनक कीटाणुओं के संपर्क में रहना पड़ता है।
लकड़ियों पर खाना बनाने वाली महिलाओं को कल-कारखानों में काम करने वाले लोगों की तुलना में अधिक प्रदूषकों के संपर्क में रहना पड़ता है। महाराष्ट्र में जलने के मामलों का अध्ययन करने पर पाया गया कि करीब 55 प्रतिशत महिलाएं भोजन बनाने के दौरान जलती हैं। हरियाणा में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं के जलने के 26 प्रतिशत मामलों में घर में हुई दुर्घटना और 55 प्रतिशत मामलों में घरेलू कार्य जिम्मेदार होते हैं।
रात्रि पाली में काम की मुश्किलें
एक समय था जब महिलाएं घर-परिवार की दहलीज के बाहर कदम नहीं रखती थीं। उन्हें चौबीसों घंटे घर में ही रहना पड़ता था। धीरे-धीरे महिलाएं काफी तादाद में घर से बाहर काम करने लगीं। आज महिलाएं दिन की पाली में ही नहीं, बल्कि रात की पाली में भी काम करती हैं। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ दिल्ली में ही ढाई लाख कामकाजी महिलाएं रात्रिकालीन पालियों में काम करती हैं। इनमें से अधिकतर महिलाएं टेलीफोन आपरेटर, नर्स, डाॅक्टर, ब्राॅडकास्टर, विमान परिचारिकाएं, होटल कर्मचारी तथा पत्रकार हैं। हालांकि ब्राॅडकास्टर, पत्रकार और होटल तथा एयरलाइन स्टाफ को रात्रि ड्यूटी के बाद आफिस की गाड़ियां घर छोड़ने जाती है। ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं रात्रि ड्यूटी के बाद निजी वाहन से भी घर चली जाती हैं, लेकिन निचले पदों पर काम करने वाली महिलाओं के पास ऐसी सुविधाएं नहीं होती और इस कारण उन्हें कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
दस साल पहले महिला पत्रकारों को रात्रि में काम नहीं करना पड़ता था, लेकिन अब संवाद समितियों, अंग्रेजी और हिंदी के अखबारों तथा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में महिलाओं को रात्रि ड्यूटी भी करनी पड़ती है। हालांकि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के ज्यादातर अखबारों में महिलाएं रात्रि ड्यूटी से मुक्त हैं। हालांकि अब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तथा अखबारों के इंटरनेट संस्करण के आविर्भाव के कारण रात्रिपाली में काम करने वाली महिला पत्रकारों की संख्या बढ़ रही है। रात्रि ड्यूटी में काम करनेवाली महिलाओं में सबसे अधिक परेशानी टेलीफोन आपरेटरों को उठानी पड़ती है, क्योंकि आपरेटरों की रात्रि ड्यूटी शाम 6 बजे से 12 बजे रात तक तथा 3 बजे सुबह से 5 बजे सुबह तक की होती है। बीच में उन्हें 3 घंटे का ब्रेक दिया जाता है। लेकिन कोई महिला रात में 12 बजे घर जाकर वापिस 3 बजे सुबह आफिस नहीं आ सकती। इसलिए उन्हें 6 बजे शाम से 5 बजे सुबह तक आफिस में ही रहना पड़ता है। इस तरह इन महिलाओं को लगातार 11 घंटे आफिस में बिताने पड़ते हैं। फिर इनकी तनख्वाह भी इतनी कम होती है कि वे निजी वाहन वहन नहीं कर सकतीं। इसलिए इन्हें घर जाने के लिए सरकारी बसों पर निर्भर रहना पड़ता है और बसें छह बजे सुबह के बाद ही सुलभ हो पाती हैं। फिर रात में अकेले सफर करना भी खतरे से खाली नहीं होता, मजबूरन इन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ता है।
लगभग इसी तरह की स्थिति नर्सों के साथ भी है, क्योंकि रात्रि ड्यूटी में आराम करने के लिए उनके पास विश्राम कक्ष नहीं होते, जैसा कि डाॅक्टरों के लिए होते हैं। जब तक वे काम में व्यस्त होती हैं, तब तक उन्हें कमरे की जरूरत नहीं होती, लेकिन जब उनका काम खत्म हो जाता है तो वे इधर-उधर भटकती रहती हैं। उनके पास निजी वाहन की सुविधाएं भी नहीं होती, ताकि वे ड्यूटी खत्म होने के बाद घर जा सकें। मजबूरन उन्हें आफिस की गाड़ी का इंतजार करने के लिए अस्पताल में ही रूकना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों में सुरक्षा की अत्यंत खराब व्यवस्था होने के कारण रात्रि पाली में नर्सों को हर समय असुरक्षा का भय होता है, क्योंकि रात में रोगी तथा स्टाफ कम होने के कारण अस्पताल सूना हो जाता है, किसी भी समय उनके साथ कुछ भी हो सकता है। नर्सें तभी थोड़ा सुरक्षित महसूस करती हैं जब उनके वार्ड के दरवाजे भीतर से बंद होते हैं। उन्हें रात में अपनी शारीरिक सुरक्षा के लिए सतर्क रहना पड़ता है। रात में रोगियों के रिश्तेदार, अस्पताल के पुरुष कर्मचारी से लेकर बाहरी आदमी कोई भी उनके साथ बदसलूकी कर सकता है या उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ कर सकता है। यही नहीं, महानगरों में जिस तरह से अपराध, हिंसा और महिलाओं के साथ अत्याचार और दुव्र्यवहार के मामले बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए आम तौर पर महिलाएं रात में ड्यूटी करने से कतराती हैं। लेकिन परिवार की आर्थिक समस्याओं और जीवन में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा के कारण कई महिलाएं वैसी नौकरियां करने को मजबूर हो जाती हैं जिनमें रात में भी ड्यूटी करनी पड़ती है।
जिन महिलाओं के बच्चे छोटे होते हैं, उनके लिए रात की ड्यूटी करना बहुत कठिन होता है। जब वे रात में ड्यूटी कर रही होती हैं उनका ध्यान बच्चे की ओर ही होता है। इस तरह वे ढंग से काम नहीं कर पातीं और तनाव में होती हैं। कुछ महिलाओं के पति या घर वाले इन परिस्थितियों को समझते हुए उनका साथ देते हैं और सहयोग भी करते हैं, जबकि कुछ महिलाओं को दिन में घर तथा रात में दफ्तर का काम करना पड़ता है। जिसका, नतीजा यह होता है कि उन्हें स्वास्थ्य संबंधित कई गंभीर समस्याएं हो जाती हैं। उनके पाचन और तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ियां हो जाती हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता की कमी होने लगती है।
आज के समय में जब महिलाएं पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दावा कर रही है और कई क्षेत्रों में पुरुषों से आगे निकलने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, तब यह मांग तो नहीं की जा सकती कि महिलाओं को रात्रि पाली की ड्यूटी से मुक्त रखा जाए, लेकिन इतनी व्यवस्था तो अवश्य होनी चाहिए ताकि वे निर्भय होकर ड्यूटी कर सकें और ड्यूटी के बाद सुरक्षित घर पहुंच सकें। अगर दफ्तरों में सुरक्षा, विश्राम तथा घर पहुंचाने की पुख्ता व्यवस्था हो तो महिलाएं रात्रि पाली में काम करने से कतई नहीं कतरायेंगी।
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