आम जीवन में घटने वाली विभिन्न दुर्घटनाओं और कुछ बीमारियों के कारण रीढ़ के क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर हो जाने पर मरीज को असहनीय कष्ट सहते हुये पंगू जिंदगी जीनी पड़ती है। लेकिन अब स्पाइनल प्लेटिंग ऐसे लोगों के लिये वरदान बनकर सामने आयी है। इस तकनीक के कारण अपाहिज जीवन जीने को मजबूर लोग बैठने योग्य हो जाते हैं और अगर उनके पैरों में ताकत हो तो चलने-फिरने लायक भी हो जाते हैं तथा वे सामान्य काम-काज करने में सक्षम हो सकते हैं।
तेजी से भागते आधुनिक जीवन में दुर्घटनायें आम हो गयी हैं। सोते-जागते कभी भी-कहीं भी हम हादसों के शिकार हो सकते हैं। घर-बाहर होने वाली ऐसी दुर्घटनाओं में रीढ़ मामूली या गंभीर तौर पर क्षतिग्रस्त हो सकती है। इसके अलावा कैंसर, तपेदिक, ट्यूमर एवं ओस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियों के कारण भी रीढ़ को नुकसान पहुंच सकता है या रीढ़ गल अथवा कमजोर हो सकता है। कैंसर या ट्यूमर रीढ़ से भी शुरू हो सकता है या किसी दूसरे अंगों से शुरू होकर भी रीढ़ तक पहुंच सकता है। रक्त कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर तथा स्तन कैंसर के रीढ़ तक पहुंच जाने की आशंका बहुत अधिक होती है। आज कीमोथेरेपी तथा रेडियो थेरेपी की मदद से कैंसर के रोगियों को लंबा जीवन दिया जाना संभव हो गया है। लेकिन कैंसर के रीढ़ तक पहुंच जाने पर कैंसर के मरीजों को अपना शेष जीवन बिस्तर पर व्यतीत करना पड़ सकता है। स्पाइनल प्लेटिंग ऐसे मरीजों को अपाहिज जीवन से मुक्ति दिला कर उनके शेष जीवन में सक्रियता ला सकती है।
इसके अलावा कई बार डिस्क की बीमारियों के कारण भी व्यक्ति चलने-फिरने में असमर्थ हो जाता है। स्पाइनल प्लेटिंग के जरिये मरीज को इस स्थिति से उबारा जा सकता है।
दुर्घटनाओं में स्पाइन तथा स्पाइनल कार्ड में चोट लगने की आशंका आम तौर पर पुरुषों को अधिक होती है क्योंकि पुरुषों को घर से बाहर कल-कारखानों एवं खेत-खलिहानों में काम करते समय या सड़कों पर वाहन चलाते समय दुर्घटनाओं में जख्मी होने का खतरा अधिक होता है। लेकिन मौजूदा समय में अब ज्यादा से ज्यादा महिलायें घर से बाहर नौकरी एवं रोजगार करने लगी हैं। अब बड़े शहरों में महिलायें भी सड़कों पर स्कूटर एवं कारें चलाने लगी हैं जिसके कारण वे भी सड़क दुर्घटनाओं की चपेट में अधिक संख्या में आने लगी हैं। इसके अलावा घर में काम-काज के दौरान भी छत से गिर जाने और चिकनी फर्श पर फिसल जाने जैसी घटनाओं से रीढ़ को चोट लगने की आशंका बनी रहती है। स्पाइनल प्लेटिंग की मदद से अब ऐसे लोग बिस्तर पर लेटे रहने के लिये मजबूर होने की बजाय कुछ ही दिनों में काम-काज करने लायक हो सकते हैं।
रीढ़ में चोट लगने या उसके क्षतिग्रस्त होने के कारण रीढ़ की हड्डियों की विशेष संरचना के बीच सुरक्षित रहने वाला स्पाइनल कार्ड भी प्रभावित हो सकता है। स्पाइनल कार्ड के कट जाने या क्षतिग्रस्त हो जाने पर मरीज हाथ-पैर हिलाने-डुलाने में असमर्थ हो जाता है। यहंा तक कि मल-मूत्र त्यागने की प्रक्रिया पर से भी मरीज का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। स्पाइनल कार्ड अत्यंत संवेदनशील, नाजुक और महत्वपूर्ण तंतु है जिसके माध्यम से मस्तिष्क हाथ-पैर, आंतों और मूत्राशय की कार्यप्रणालियों का संचालन करता है। रीढ़ के तपेदिक और फोड़े जैसे रोगों से ग्रस्त हाने अथवा किसी दुर्घटना में चोटग्रस्त होने पर सबसे पहले रीढ़ की हड्डियां क्षतिग्रस्त होती हैं। ये हड्डियां अपनी शक्ति खोने लगती हैं और इनका आपसी सामन्जस्य समाप्त होने लगता है। इससे रीढ़ में असंतुलन उत्पन्न होता है जिससे रीढ़ में दर्द उठता है। चलने-फिरने पर यह दर्द बढ़ जाता है। इससे हाथों और पैरों में भी कमजोरी आती है। रोग या चोट के अधिक गंभीर होने पर स्पाइनल कार्ड पर दबाव पड़ने लगता है जिससे मरीज हाथ-पैर हिलाने- डुलाने तथा अपनी इच्छा से मल-मूत्र त्यागने की क्षमता खोकर पूरी तरह से पंगू जीवन जीने को मजबूर हो जाता है।
इसके उपचार के लिये पहले मरीज को महीनों तक बिस्तर पर बिना हिलाये-डुलाये लिटाये रखना पड़ता था जिसके कारण उसे शैया व्रण, छाती तथा मूत्र मार्ग में संक्रमण की आशंका हो जाती है। साथ ही उसकी सामान्य जीवन की गतिविधियांे पर भी प्रतिबंध लग जाता है। इसके अलावा मरीज को लंबे समय तक दर्दनिवारक एवं एंटी बायोटिक दवाइयां खानी पड़ती है जिसका मरीज पर दुष्प्रभाव होता है। मरीज को शैया व्रण होने पर प्लास्टिक सर्जरी कराने की जरूरत पड़ जाती है। इसलिये ऐसे मरीजों को शीघ्र बैठने, खड़ा होने तथा चलने-फिरने लायक बनाने की कोशिश के तहत स्पाइनल प्लेटिंग का इस्तेमाल आरंभ हुआ। हालांकि विदेशों में इस तकनीक का व्यापक तौर पर इस्तेमाल होने लगा है लेकिन अपने देश में अभी इसका इस्तेमाल कुछ इने-गिने चिकित्सा केन्द्रों में ही हो रहा है।
हालांकि अभी प्लेटिंग में इस्तेमाल होने वाली टाइटेनियम प्लेट तथा स्क्रू आदि विदेशों से आयात होते हैं इस कारण प्लेटिंग पर आरंभिक खर्च थोड़ा अधिक होता है लेकिन मरीज अस्पताल से शीघ्र छुट्टी पाकर घर जा सकता है, अपना काम शीघ्र कर सकता है और उसे अधिक समय तक बिस्तर पर एक ही करवट लेटे रहने के कारण शैया व्रण होने की आशंका नहीं होती। इसलिये स्पाइनल प्लेटिंग कुल मिलाकर महंगा साबित नहीं होता है।
इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती है। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती है और मरीज सामान्य जीवन जीने लायक हो जाता है।
स्पाइनल प्लेटिंग करने वाले चिकित्सक का पूर्णरूप से प्रशिक्षित होना आवश्यक है। इसमें रीढ़ के अत्यंत छोटे हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म स्क्रू की मदद से बहुत छोटी-सी प्लेट को प्रत्यारोपित करना पड़ता है।
प्लेटिंग के लिये टाइटेनियम अथवा इस्पात की प्लेट का इस्तेमाल होता है जो शरीर में किसी तरह की प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यह प्लेट शरीर का ही हिस्सा बन जाती है और इसलिये कुछ समय बाद रीढ़ के क्षतिग्रस्त भाग के मजबूत बन जाने के बाद प्लेट को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है।
यह प्लेट जिंदगी भर चलती है। लेकिन किसी कारण या दुर्घटनावश अगर प्लेट के साथ कोई दिक्कत हो जाये तब इसे आपेरशन करके निकाल लिया जाता है।
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