सामान्यतः सामाजिक शैक्षणिक क्रान्ति के जनक महात्मा जोतीराव फुले की जीवनी उनके कार्यों की बात आती है, तो यह अवधारणा बनी हुई है, कि फुले तो ब्रह्यणों के विरूद्ध थे, जबकि फुले की समझ स्पष्ट थी, उनके किसी भी ग्रन्थ में, उनके बारे में लिखे गये किसी भी साहित्य में ब्रह्यणों के विरूद्ध हो, वास्तविकता यह कि फुले ब्रह्यणवाद, पोंगा पंडितवाद, अवैज्ञानिक, तर्क, साहित्य, स्वरूप, तथाकथित दैववाद, अशिक्षा, अंधविश्वास, अश्प्रश्यता, असमानता, भेदभाव, कुरीतियाँ, कर्मकाण्ड मूर्तिपूजा, ढोंग, बेईमानी, भृष्टाचार, महिलाओं की दासता, नारी का अपमानजनक जीवन, आदि आदि बुराईयों के विरूद्ध उन्होने कमर कसली थी, और लिखने बोलने के किसी भी माध्यम से उन्होंने मानवता, विज्ञानवाद, सबको निशुल्क
और रोजगार पूरक शिक्षा, स्वास्थ्य, सहकार, न्याय, ईमानदारी, सदाचार, परोपकार, जैसे मानव जीवन को सहज, सरल, रूप
से जीने के लिए सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर दिया था ।
उनके साहित्य का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि महात्मा फुले की मिशन में सभी जाति, धर्म वर्ण के लोगों का योगदान है। बचपन में उनका साथ मुस्लिम गफ्फार बेग, फातिमा शेख, क्रिश्च्यिन, लिजिट साहेब सनातनी ब्राह्यमण सदाशिव बल्लाल गोवंडे, मोरोपंत विट्ठल वालवेकर, सखाराम यशवंत पराजये, वासुदेव, बलवंत पड़के, कमान्य तिलक, न्यायमूर्ति माधव, गोविन्द रानडे, बालशास्त्री जांभेकर, गोपालहरि देशमुख, आदि के साथ जीवन की अनेक घटनाऐं एक दुसरे के सहयोगी रहे।
फुले कट्टरता पूर्वक मानवतावाद की मिशन पूरा करने में जुटे रहे, उन्होंने कभी समझोता करके हार नहीं मानी, किन्तु उनके अनेक परिचितों ने समय के साथ समझोता करके घुटने टेक दिये थे। एक उदाहरण है किः- दिनांक 4 अक्टूबर 1890 को पुणे की ''पंचंचकोटेट मिशन'' नामक ईसाई संस्था के सामरोह में पुणे के संभा्रत बा्रह्यण उपस्थित थे, उस समारोह में उस्थित बा्रह्यणों ने ईसाईयों की बनाई हुई, चाय पी, इसलिए कट्टरपंथियों ने उनको बहिष्कृत किया । उनके लोकमान्य तिलक और माधव गोविन्द रानडे और तिलक ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया तिलक जी ने चाय पीने के बाद काशी जाकर प्रायश्चित किये जाने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया। अन्य आठ लोगों ने दोष निवारर्णाथ प्रायश्ति के लिये आवेदन किया।
लोकमान्य तिलक चिरोल मुकदमों के मामले में इंग्लेण्ड गये थे, लोटने पर उन्होने सागरपार गमन का सन् 1919 में प्रायश्चित किया ।
राजा राममोहन राय आर्य समाज सुधारक माने जाते है, उन्होने नियम ही बनाया था, कि बा्रह्यमों समाज के धर्म प्रचारक ब्राहम्ण ही होने चाहिए ।
इन उदाहरणों से पता चलेगा कि उस समय के लगभग सभी समाज सुधारक नेताओं ने बहिष्कार के आगे गर्दने झुकाई थी। किन्तु केवल जोतीराव ही ऐसे नेता थे जिन्होनें बहिष्कार की रात्तीभर भी चिंता नहीं की । वे झुकने इस प्रथा को समाप्त कर देना चाहते थे।
बा्रह्यणवाद के मानवतावाद से अनेक दोषों का फुले ने बहिष्कार ही नहीं किया वल्कि समतामय समाज रचना के लिये सर्व प्रथम शिक्षा का महत्तव सम्पूर्ण मानवता को समझाया और स्ंवय ने ही अपनी पत्नि सावित्रीबाई फुले को शिक्षित कर प्रथम प्रशिक्षिक शिक्षिका बनाकर विद्यालय प्रारम्भ कर 18 विद्यालय संचालित कियें, फुले का कार्य और व्यवहार में कोई अन्तर नहीं होता था, वे निडर होकर मानवतावाद के लिए संघर्ष शील रहे। उन्होनें घिसी पीटी धार्मिक अवधारणाओं से मुँह मोड़कर मानवता समता भाव जाग्रत करने के लिए सार्वजनिक सत्यधर्म की स्थापना की 24 सितम्बर 1873 को ''सत्यशोधक
समाज'' बनाकर समाज की रीतिरिवाज में आमूलचूल परिवर्तन कर दिये जो सहज सरल सबको समझने व मानने लायक थे।
हमारे देश में यदि फुले नहीं होते तो पाखण्ड के जीवन से मानव को कब निजात मिलती यह गर्त में छिपा ही रहता । फुले ने सभी धर्मों के ग्रन्थों का अध्यन कर मानवता धर्म की अवधारणा से सामाजिक क्रान्ति की है । आज शिक्षा और नारी शिक्षा के खुले द्वार का हम भारतवासी लाभ उठा रहे है। इसका सम्पूर्ण श्रेय फुले दम्पत्ति को ही जाता है । खासकर शूद्रों तथा नारी को शिक्षा-समानता- मानवता के जो अधिकार हमारे संविधान में बाबा साहेब ने हमें दिये है।, ये भी उनके गुरू महात्मा फुले के जीवन उनके कार्य उनके रचित ग्रन्थों को पढ़-समझ कर ही संविधान के रूप् में मानव समाज को मिले है।
महात्मा जोतीराव फुलों पर जितना भी शोध किया जाय वह सब प्रेरणा दायक है, प्रत्येक मानव अपने जीवन में फुले के आदर्श उतारकर आचरण करने लायक बन जाय तो दरिद्रता भू , अशिक्षा अंधविश्वास से छूटकारा मिल सकता है। इसलिए भारत के प्रायः सभी लोग चाहते है, कि फुले दम्पत्ति को भरत रत्न दिया जाय। प्रसन्नता है कि महाराष्ट्र चुनाव के संकल्प पत्र में भाजपा ने फुले दम्पत्ति को भारत रत्न दिये जाने का संकल्प लिया है। इसी प्रकार अनेक प्रदेशों के मुख्य
मंत्री, मंत्री विधायक केन्द्र के सांसद मंत्री, समाज सेवी संस्थाऐं निरन्तर भारत सरकार से मांग करती है कि फुले दम्पत्ति को
भारत रत्न दिया जाय।
फुले का सम्पूर्ण जीवन बा्रह्यणवाद के विरूद्ध भरा पड़ा हैं वे बा्रह्यणों के भी साथि थे । फुले के जीवन से प्रेरणा लेकर मानवता से जीने का लाभ मिलता है। हम फुले दम्पत्ति के त्रृणी है। 28 नवम्बर 1890 को फुले का परिनिर्वाण हुआ।
लेखक : मनारायण चैहान, महात्मा फुले सामाजिक शिक्षण संस्थान, गाजीपुर, दिल्ली
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