आईएमए ने एमसीआई से टेलीमेडिकेशन को लेकर स्पष्ट दिशानिर्देश बनाये जाने की मांग की

नई दिल्ली : इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का मानना है कि टेलीमेडिकेशन पूरी तरह से अवैध और अनैतिक है और इसलिए भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) को इस संबंध में स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करना चाहिए। चिकित्सा आपात स्थितियों और परिस्थितियों के प्रबंधन के अलावा, रोगी में नियमित रूप से इंसुलिन के स्तर के समायोजन, नियमित उपचार के तहत पुराने दर्द के अत्यधिक तेज होने पर दर्दनिवारक के सेवन आदि जैसी मामलों में टेलीफ़ोन के जरिये चिकित्सा परामर्श  लापरवाही का कारण माना जा सकता है।


आईएमए के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रवि वानखेडकर ने कहा, “कुछ परिस्थितियों में टेलीमेडिकेशन के न्यायसंगत उपयोग को उचित ठहराया जा सकता है, लेकिन चूंकि इन उभरते क्षेत्रों को लेकर कोई आचार संहिता नहीं है और इसलिए एमसीआई को स्पष्ट दिशानिर्देश बनाना चाहिए क्योंकि इस बारे में न्यायिक सक्रियता चिकित्सा के नेक पेशे के लिए हानिकारक साबित हो सकती है। ऑनलाइन कंसल्टेशन, ऑनलाइन पर्चे और टेलीमेडिसिन वे सभी ऐसे विषय हैं जिन्होंने नैतिक दुविधाओं को जन्म दिया है। लेकिन साथ ही, दूरस्थ क्षेत्रों, विशेष रूप से टेलीमेडिसिन और मोबाइल हेल्थ में स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए सूचना विस्फोट और अग्रिम प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा सकता है। इसलिए आईएमए ने एमसीआई से इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करने का अनुरोध किया है, जैसा कि कई विकसित देशों में इस संबंध में स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किये जा चुके हैं।“  


टेलिफोन के जरिये परामर्श देने के एक मामले में आपराधिक कार्यवाही शुरू किये जाने के उच्च न्यायालय के फैसले के बाद, यह मुद्दा जनता के ध्यान में आया और इस पर व्यापक रूप से चर्चा की गई। हालांकि उच्च न्यायायाल ने जो विशेष स्टैंड लिया उसमें टेलीफ़ोनिक परामर्श में लापरवाही नहीं पायी गई लेकिन इसमें अन्य कारणों को भी शामिल किया गया था। इसके बाद इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने डॉक्टरों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। एमसीआई की आचार संहिता ने इस पर कुछ नहीं लिखा। 


इस स्थिति में न्यायिक कानून लागू हुआ और इस प्रकार बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को महत्व मिला।


आईएमए के महासचिव डॉ. आर. एन. टंडन ने कहा, “सेवा की कमी तब होती है जब आम प्रैक्टिस लीक से हट जाती है और रोगी की उचित देखभाल नहीं होती है जिसके कारण रोगी को नुकसान पहुंचता है। सामान्य प्रैक्टिस में रोगी के इलाज करने में कुछ बातों पर विषेश ध्यान दिया जाता है, जैसे रोगी के इतिहास का पता लगाना, शारीरिक परीक्षण करना (निरीक्षण, पर्कशन, पल्पेशन और ऑस्कलटेशन), जरूरी जांच कराना और फिर समस्या की पहचान करना। समस्या की पहचान हो जाने के बाद उपचार शुरू किया जाता है। टेलीफ़ोनिक कंसल्टेशन में उपरोक्त सभी चीजों या इनमें से कुछ चीजों को शामिल नहीं किया जा सकता है। इसलिए टेलीफ़ोनिक परामर्श के मामलों में डॉक्टर पर कानूनी रूप से लापरवाही का आरोप लगाने और ढूंढने की संभावना हमेशा होती है।“  


टेलीफ़ोनिक कंसल्टेशन का विषय एक नैतिक दुविधा पैदा करता है। जब कोई संकट में होता है, तो चिकित्सक द्वारा सुझाए गए उपचार में उसका विश्वास होता है, उसके द्वारा किया जाने वाला इलाज उचित और नैतिक रूप से सही है। लेकिन साथ ही रोगी को सीधे देखने की परेशानी से बचने के लिए चिकित्सक द्वारा अपनायी गई यह विधि नैतिक रूप से गलत है। टेलीफ़ोनिक कंसल्टेशन का एक और पहलू यह है कि, इसमें रोगी या रिश्तेदारों के द्वारा भी लापरवाही बरती जा सकती है यदि वे स्वयं अपनी सुविधा के लिए टेलीफ़ोनिक कंसल्टेशन का चयन करते हैं।


किसी भी दवा की सलाह देने से पहले बीमारी का इतिहास और क्लिनिकल परीक्षण की आवश्यकता होती है। और नैतिक रूप से, एक डॉक्टर केवल रोगी को शारीरिक रूप से देखकर ही दवा की सलाह या उपचार पर सलाह दे सकता है और इसलिए रोगी को देखे बिना टेलीफ़ोनिक परामर्श अनैतिक और कानूनी रूप से अमान्य है। एक नियमित रोगी बीमारी के लक्षणों या संकेतों में परिवर्तन के कारण फोन पर परामर्श मांग सकता है, लेकिन लापरवाही से बचने के लिए दवा की सलाह देने से पहले उसके शारीरिक परीक्षण करने की आवश्यकता हो सकती है।