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बिस्तर गीला क्यों करते हैं बच्चे

पश्चिमी देशों में बच्चों को एक साल के बाद ही शौच या पेशाब के लिए प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया जाता है जिससे बच्चा 15-18 माह की उम्र में ही अपने माता-पिता से पेशाब की इच्छा जाहिर करने लगता है। दो वर्ष का होने पर वह स्वेच्छा से पेशाब और टट्टी जाना शुरू कर देता है। तीन वर्ष का होते-होते वह रात मंे बिस्तर गीला करना बंद कर देता है। यहाँ भारतीय समाज में प्रशिक्षण के अभाव में बच्चा पाँच वर्ष तक बिस्तर गीला करता रहता है। यदि बच्चा इस अवधि के बाद भी बिस्तर गीला करना जारी रखता है तो एक गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है जिसे 'बेड वेटिंग' कहते हैं।
इस उम्र के बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने के कई कारण हो सकते हैं। जैसे आरंभ से ही बच्चे को पेशाब करने का प्रशिक्षण न देने से यह समस्या पैदा हो जाती है। कुछ परिवारों में यह समस्या सात-आठ वर्ष तक आम बात होती है। इन बच्चों के परिवार के अन्य सदस्यों जैसे माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी या नाना-नानी में भी यह समस्या उनके बचपन में रही होती है। इसके अलावा माता-पिता की उपेक्षा और अधिक लाड़-प्यार दोनों ही स्थितियाँ हंै जिनमें बच्चा बिस्तर गीला करता है। माता-पिता में अनबन, बच्चे का भाई-बहन या दोस्तों से मनमुटाव या अध्यापक की अनावश्यक डाँट-फटकार की स्थितियों से गुजरने पर भी बच्चे को बिस्तर गीला करने की लत लग जाती है। बच्चे के पेशाब में संक्रमण होने, यूरीनरी ट्रैक्ट सिस्टम में गड़बडी़ होने, डायबिटीज होने या फिमोसिसर (जननाँग की ऊपरी त्वचा का स्थिर होना) होने से बच्चे में यह समस्या पैदा हो जाती है।
अक्सर यह देखा गया है कि इस समस्या से ग्रस्त बच्चों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। इसका नकारात्मक असर न केवल बच्चे की लिखाई-पढ़ाई ​बल्कि उसके पूरे विकास पर होता है। ऐसे बच्चों में हीन भावना विकसित हो जाती है जिसका प्रतिकूल असर उनके मानसिक विकास पर होता है। अनेक शोधों से यह निष्कर्ष निकला है कि इस समस्या से ग्रस्त बच्चे आम बच्चों की तुलना में पढ़ाई में कमजोर होते हैं। ऐसे बच्चों की भूख भी कम हो जाती है। ये बच्चे कुछ अन्य बुरी आदतों के भी शिकार हो जाते हैंµजैसे मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा करना, चोरी करना या नशे का शिकार हो जाना इत्यादि।
इसलिए माता-पिता को बच्चे की इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए। इस समस्या के निदान के लिए कई बार लोग अजीबोगरीब अवैज्ञानिक तरीके अपनाने लगते हैं जो बच्चों के लिए शारीरिक प्रताड़ना की तरह हो जाता है। इन प्रताड़ना में बच्चे को पानी नहीं पिलाना भी शामिल है, जिससे बच्चे के अंदर पानी की कमी हो जाती है। यह बच्चे के लिए घातक है। कभी-कभी माता-पिता बच्चे के प्रजनन अंग को रबड़ बैंड से बाँध देते हैं। इस तरह की प्रताड़ना से मुख्य समस्या तो जस की तस बनी ही रहती है, साथ ही अन्य कई अन्य समस्याएँ भी पैदा हो जाती हैं। इससे बच्चे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इसलिए ऐसे उपायों का कतई इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इस समस्या का सही निदान किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
यदि बच्चे को पारिवारिक वातावरण में कोई मनोवैज्ञानिक समस्या है तो उसका निवारण करना अत्यावश्यक है। बच्चे को शौच का प्रशिक्षण देना अनिवार्य है। इस प्रशिक्षण में बच्चे का पेशाब करने का समय सुनिश्चित करें, जैसे सुबह उठने के बाद, खाना खाने के पहले इत्यादि। इस तरह बच्चे के यूरीनरी ब्लैडर (मूत्राशय) को मूत्रा रोक कर रखने की आदत पड़ेगी। यदि बच्चे को ऊपर दी गई कोई शारीरिक व्याधि है तो उसका इलाज कराना बेहद जरूरी है। यदि इसकी जरा भी शंका हो तो किसी विशेषज्ञ से मिलकर बच्चे की जाँच कराएँ, ताकि उस कारण को दूर किया जा सके। रात में बच्चे के सोने का समय निर्धारित होना चाहिए। सोने से दो घण्टे पहले बच्चे को कोई भी तरल पदार्थ न दें और सोने से पहले उसे अच्छी तरह पेशाब करा दें। बच्चे अक्सर सोने के ढाई-तीन घण्टे के बाद पेशाब करते हैं। इसलिए यदि बच्चा रात में दस बजे सोता है तो साढ़े बारह बजे का अलार्म लगा दें व उसी वक्त पेशाब करा दें।
पश्चिमी देशों में ऐसे अलार्म का प्रयोग किया जाता है, जिसका संपर्क बच्चे के बिस्तर से होता है। बिस्तर गीला होते ही अलार्म बज उठता है और बच्चा जागकर पेशाब करने चला जाता है। इसे कंडीशनिंग डिवाइस कहते हैं। कुछ महीने ऐसा करने से जब भी पेशाब लगेगा बच्चे की नींद खुल जाएगी। इस उपकरण से काफी फायदा मिलता है।
जिन बच्चों को इन उपायों से फायदा नहीं होता है। उन्हें कुछ दवाईयाँ देनी पड़ती है। इसके लिए कुछ डाॅक्टर एंटीडिप्रेसेंट दवाई देते हैं। जिनसे कुछ आराम मिलता है। लेकिन ये दवाएँ बच्चे के विकास पर प्रतिकूल असर डालती है। साथ ही जैसे ही इन दवाओं का सेवन बंद किया जाता है, बिस्तर गीला करने की शिकायत फिर शुरू हो जाती है। इसलिए अब ज्यादातर विशेषज्ञ इन दवाओं का इस्तेमाल करने के पक्ष में नहीं है। अधिकतर शोध में पाया गया है कि बच्चे में बेजोप्रेसिन हार्मोन की कमी की वजह से उसके शरीर में पानी की मात्रा अधिक हो जाती है। अगर बच्चे को स्पे्र या ड्राॅप के रूप में यह हार्मोन दिया जाय तो इससे काफी राहत मिलती है। लेकिन यह हार्मोन उपचार काफी महंगा पड़ता है। इस विधि में एक बच्चे के इलाज पर चार से पाँच हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। साथ ही यह इलाज किसी विशेषज्ञ की देख-रेख में करना पड़ता है। चूंकि यह बच्चे में मौजूद रहने वाला हार्मोन है इसलिए इस इलाज का कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है।
नयी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (ए.आई.आई.एम.एस.) तथा इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में मैंने अब तक ऐसे नौ सौ से अधिक बच्चों का इलाज किया है जो छह वर्ष से 14 वर्ष तक के थे। 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में ब्लैडर टोनिंग, पानी पिलाने के समय का ध्यान रखना और अलार्म डिबाइस से फायदा हुआ। इस उम्र के कुछ बच्चे का हार्मोन उपचार करना पड़ा। 10 वर्ष से ज्यादा उम्र के बच्चों में ब्लैडर टोनिंग व पानी पिलाने के समय का ध्यान रखने के साथ-साथ हार्मोन उपचार का भी उपयोग करना पड़ता है।


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