दुनिया भर में वायु प्रदूषण न केवल फेफड़ों को प्रभावित करता है, बल्कि यह दुनिया भर में एक्यूट स्ट्रोक के 30 प्रतिशत मामलों के लिए भी जिम्मेदार है। भारत में वायु प्रदूषण हमारे देश में स्ट्रोक के प्रमुख कारणों में से एक है। हाल के शोधों से इस बात की पुष्टि हुई है कि वायु प्रदूषण और स्ट्रोक का विकलांगता और मृत्यु दर से गहरा संबंध है।
मैक्स हाॅस्पिटल, शालीमार बाग के न्यूरोलॉजी विभाग के वरिष्ठ निदेशक डॉ. अमिताभ वर्मा ने कहा, “मैक्स हॉस्पिटल, शालीमार बाग ने न्यूरोलॉजी विभाग में नवम्बर'17 से जून'18 तक भर्ती मरीजों के आंकड़ों का विश्लेषण करके एक अध्ययन किया है। इसके नतीजे से पता चलता है कि इस दौरान न्यूरोलाॅजी विभाग में कुल 369 मरीजों को भर्ती कराया गया, जिनमें से 108 रोगी स्ट्रोक के थे। अध्ययन के तहत पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर भी दर्ज किए गए। अस्पताल में स्ट्रोक के 95 प्रतिषत रोगी उन दिनों भर्ती किए गए थे जब पीएम 10 का स्तर स्वीकृत स्तर से ऊपर था। 103 मरीजों में से 102 मरीजों को उन दिनों स्ट्रोक हुआ था जब पीएम 10 का स्तर अधिक था। दिलचस्प बात यह है कि 62 मामलों में स्ट्रोक का कोई पारंपरिक ज्ञात जोखिम कारक नहीं था।“
भारत में सालाना 40 लाख समयपूर्व हताहतों के लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया है, उनमें से 40 प्रतिशत स्ट्रोक के कारण हताहत होते हैं जिनमें से आधी से अधिक महिलाएं होती हैं जो खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन का उपयोग करती हैं और इसके कारण वातावरण में फैले प्रदूषण के लगातार संपर्क में रहती हैं।
30 करोड़ से अधिक लोग अपने घरों में खाना पकाने या घरों को गर्म करने के लिए ठोस ईंधन (कोयले, लकड़ी, चारकोल, फसल के कचरे) के साथ-साथ परंपरागत स्टोव या खुली आग का उपयोग करते हैं। इस तरह की गलत प्रथाओं के कारण अत्यधिक घरेलू प्रदूषण होता है जिसमें सूक्ष्म कण और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे प्रदूषक होते हैं जो अनेक प्रकार के रोग पैदा करते हैं।
सरोज सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, रोहिणी के विभागाध्यक्ष और सीनियर कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट डाॅ. जयदीप बंसल ने कहा, “घरेलू धुएं को सांस में लेने के कारण महिलाओं में स्ट्रोक का जोखिम 40 प्रतिशत बढ़ जाता है। अधिक प्रदूषण के कारण होने वाली वैस्कुलर क्षति का कारण जलने वाले ठोर्स इंधन से पैदा हुए कार्बन मोनो आक्साइड और सूक्ष्म कण हैं। ये एचडीएल (उच्च घनत्व लिपोप्रोटीन) के स्तर को कम कर देते हैं। ये धमनियों के सख्त हो जाने के कारण शरीर से एलडीएल (कम घनत्व लिपोप्रोटीन) को निकलने से रोकते हैं। इसके कारण हानिकारक वसा एलडीएल के स्तर में वृद्धि हो जाती है, जिससे खून का थक्का बनने का खतरा बढ़ जाता है, मस्तिष्क को रक्त आपूर्ति में रुकावट आती है और स्ट्रोक हो जाता है।''
वाहनों और फैक्टरियों से निकलने वाले धुएं के बढ़ने के कारण जहरीले कणों में वृद्धि हो रही है। इसके अलावा किसानों द्वारा पराली जलाना भी वायु प्रदूशण का एक अन्य कारण हैं। इससे सर्दियों के महीनों के दौरान प्रदूषण बढ़ जाता है। यह एक जाना माना तथ्य है कि सर्दियों के महीनों के दौरान स्ट्रोक के मामलों में वृद्धि हो जाती है। औसतन भारतीय ग्रामीण घरों में आंतरिक वायु प्रदूषण विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानदंडों से 20 गुना अधिक होता है। विशेष रूप से भारत के ग्रामीण इलाकों में खराब वेंटिलेशन के कारण और खाना पकाने के तरीकों के कारण घरों और आसपास धुएं का स्तर सूक्ष्म कणों के स्वीकार्य स्तर से कम से कम 100 गुना तक अधिक होता है। महिलाएं और बच्चे घर के भीतर के प्रदूषण के संपर्क में सबसे अधिक रहते हैं और महिलाएं और छोटे बच्चे इन्हीं प्रदूषित वायु के संपर्क में अपना 80 प्रतिशत समय बिताते हैं।
डाॅ. बंसल ने कहा, ''विश्व में होने वाले 90 प्रतिशत से अधिक स्ट्रोक के जोखिम कारकों में सुधार किया जा सकता है, जिनमें वायु (घर और आसपास की हवा) प्रदूषण सूची में सबसे ऊपर है। जिन अन्य कारकों की रोकथाम की जा सकती है उनमें उच्च रक्तचाप, आहार में ताजे फल और साबुत अनाज की कमी, घर के बाहर का प्रदूशण, उच्च बीएमआई और धूम्रपान शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, भारत जैसे विकासशील देशों में 30 प्रतिशत अपंगता के लिए स्ट्रोक जिम्मेदार होता है और यह विकसित देशों की तुलना में 4 गुना अधिक है। इन जोखिम कारकों को नियंत्रित कर स्ट्रोक के कारण होने वाली विकलांगता और मौत को 80 प्रतिशत तक कम करना संभव है।''
स्ट्रोक से बच गये 2 करोड़ 60 लाख से अधिक लोग अभी भी काफी विकलांगता भरा जीवन जी रहे हैं जिसके कारण उन्हें अपना दैनिक कार्य करने में भी मुश्किल आती है। स्ट्रोक की शुरुआती अवस्था में ही पहचान से काफी अंतर होता है और इलाज से अविश्वसनीय परिणाम हासिल हो सकते हैं। लेकिन कई लोग अस्पताल जाने में देरी कर देते हैं क्योंकि वे लक्षणों को पहचान नहीं पाते हैं।
डाॅ. वर्मा ने कहा, ''इसलिए वायु प्रदूषण के कारण होने वाले स्ट्रोक से होने वाली मौतों को रोकना महत्वपूर्ण है। स्ट्रोक के अटैक से पहले पहचानने योग्य लक्षण होते हैं जो अक्सर मिनी स्ट्रोक के रूप में जाने जाते हैं। ये लक्षण केवल एक मिनट रहते हैं लेकिन दो दिनों के भीतर बड़ा स्ट्रोक होने का संकेत देते हैं। समय पर इलाज से किसी भी प्रकार के स्ट्रोक को रोकने में मदद मिल सकती है क्योंकि मस्तिष्क के किसी भी हिस्से में रक्त के थक्के बनने से मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति खत्म हो जाती है जिसके कारण प्रति मिनट 20 लाख न्यूराॅन खत्म हो जाते हैं क्योंकि पीएम और मोनो कार्बन डाइ आक्साइड जैसे श्वास के जरिये शरीर में जाने वाले यौगिक रक्त का थक्का बनने और मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को अवरुद्ध करने का खतरा बढ़ाते हैं। स्ट्रोक के उपचार में समय का काफी महत्व है। स्ट्रोक के बाद का पहला 3 से 4 घंटा प्रभावी और उचित इलाज के लिए 'गोल्डन आवर' होता है।''
इसलिए स्ट्रोक से बचने के लिए जोखिम कारकों को कम करने के निवारक उपाय अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
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