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कैसे करें बढ़ते बच्चे की देखभाल

भारत जैसे विकासशील देशों में बच्चों की मृत्यु दर विकसित देशों की तुलना में कई गुणा अधिक है। यहाँ न सिर्फ गरीब बल्कि अमीर तबकों में बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास की दर विकसित देशों की तुलना में कम है। हालाँकि बच्चे का विकास एक प्राकृतिक प्रक्रिया है लेकिन इसे चरम सीमा तक पहुँचाने के लिए बच्चे की सही देखभाल एवं उसका समुचित लालन-पोषण बहुत जरूरी है। जब बच्चा माँ के गर्भ में होता है तभी से उसकी देखभाल शुरू हो जानी चाहिए जो उसकी देखभाल 18 वर्ष की उम्र तक जारी रखनी चाहिए। इस दौरान बच्चे की परवरिश, देखभाल और प्रमुख बीमारियाँ तथा उन बीमारियों से बचाव के बारे में निम्न चरणों में अध्ययन किया जा सकता है। 
1. भ्रूण काल से छह माह तक - बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास का एक पूूूूरा चरण माँ के पेट में ही गुजरता है। इसलिए गर्भधारण की जानकारी मिलते ही गर्भवती महिला की सही तरह से देखभाल शुरू हो जानी चाहिए और निकट के किसी चिकित्सा केन्द्र में नियमित अंतराल पर उसकी जाँच-पड़ताल करानी चाहिए। एक गर्भवती महिला को सामान्य महिला की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत ज्यादा खुराक की आवश्यकता होती है। उसे दिन भर में कम से कम 8-10 घण्टे आराम करना चाहिए। गर्भ काल पूरा होने पर किसी अच्छे चिकित्सा केन्द्र में उसका प्रसव कराना चाहिए। माँ की उचित देखभाल से स्वस्थ बच्चे के पैदा होने की अधिक संभावना होती है। 
जन्म के पहले छह माह में बच्चे को केवल माँ के दूध की जरूरत होती है इसलिए जन्म के बाद ही बच्चे को तुरन्त माँ का दूध पिलाना शुरू कर देना चाहिए। हमारे समाज में लोगों में यह धारणा है कि बच्चे को जन्म के बाद माँ का दूध नहीं देना चाहिए और उसे शहद या ऊपर का दूध देना चाहिए। लेकिन यह धारणा गलत है। बच्चे के जन्म के बाद शुरू के छह-सात दिन में माँ को थोड़ा कम दूध तकरीबन 40-50 मिली लीटर ही होता है लेकिन यह दूध बच्चे के लिए पर्याप्त होता है। उसे अलग से दूध या पानी की जरूरत नहीं होती है। सात दिन के बाद माँ के दूध की मात्रा काफी बढ़ जाती है जो कि तीसरे-चैथे हफ्ते तक 600-800 मिली लीटर तक पहुँच जाती है। बच्चे को प्रथम छह माह में केवल माँ का दूध ही देना चाहिए क्योंकि माँ के दूध में कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं जिससे बच्चे का माँ के पेट में जो विकास नहीं हुआ होता है वह भी पूरा हो जाता है। जो बच्चे किसी वजह से पहले छह माह में माँ का दूध पूरी तरह से नहीं पी पाते हैं उनके शरीर में किसी न किसी तरह की कमी रहने की आशंका अधिक रहती है। कुछ माताएँ और उनके सगे-संबंधी अंधविश्वास के कारण यह समझते हैं कि माँ के दूध की तुलना में बच्चे को ऊपर का दूध देना ही बेहतर होता है। लेकिन ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है बल्कि माँ को बुखार, खाँसी, जुकाम जैसी छोटी-मोटी बीमारियाँ होने पर भी बच्चे को अपना दूध पिलाना जारी रखना चाहिए। अगर किसी वजह से बच्चे को ऊपर का दूध देना ही पड़े तो किसी अच्छे विशेषज्ञ की निगरानी में ही देना चाहिए।
शुरुआती दिनों में जब बच्चा माँ का दूध पीता है तो 8-12 बार टट्टी करता है जो कि एक सामान्य प्रक्रिया है। माँ के दूध में अधिक लैक्टोज होने के कारण बच्चे की आँत उसे पचा नहीं पाती जिसके कारण बच्चा अधिक शौच करता है। लेकिन तीन-चार हफ्ते की उम्र तक बच्चे की यह समस्या खत्म हो जाती है और बच्चा दिन में एक-दो बार ही शौच करता है। 
आम धारणा यह भी है कि बच्चा पैदा होने के बाद उसकी खूब मालिश करनी चाहिए। लेकिन बच्चे को तेल से मालिश करने से कोई फायदा नहीं होता है बल्कि कई बार बच्चे को तेल से कई तरह की एलर्जी हो जाती है। इसलिए बच्चे को प्रथम छह माह में अगर मालिश करनी भी हो तो बहुत हल्के हाथ से नहाने के पहले मालिश करें और नहाते समय उसका तेल अच्छी तरह से हटा दें। बच्चे के शरीर में तेल लगा रह जाने से उसे त्वचा की कई बीमारियाँ होने की संभावना हो जाती है। आम धारणा यह भी है कि बच्चे की आँख में काजल लगाने से उसकी आँखें बड़ी हो जाएगी। लेकिन काजल लगाने से बच्चे की आँख को कोई फायदा नहीं होता है बल्कि इससे उसे ट्रैकोमा जैसी वायरल बीमारियाँ हो सकती हैं। इसलिए बच्चे की आँख में काजल नहीं लगाना चाहिए। अगर कभी खूबसूरती के लिए बच्चे की आँख में काजल लगाना हो तो बाजार से कोई अच्छा काजल खरीदकर केवल आँख के बाहर की त्वचा में ही लगाएँ, काजल को आँख के अंदर न घुसाएँ क्योंकि इससे बच्चे को आँख को कई बीमारियाँ हो सकती हैं।
बच्चे को छह माह की उम्र तक मिलने-जुलने वालों से बचा कर रखना चाहिए क्योंकि इस उम्र के बच्चों की प्रतिरक्षण क्षमता बहुत कम होती है इसलिए उसमें संक्रमण खतरा अधिक होता है।
छह माह की उम्र तक बच्चे का विकास सही तरीके से होना जरूरी है। इसके लिए छह माह की उम्र तक बच्चे के विकास को मापना बहुत जरूरी है। बच्चे के विकास को मापने के लिए हर महीने बच्चे का वजन, लंबाई, सिर के घेरे की नाप लेना चाहिए और बच्चे को किसी बाल रोग विशेषज्ञ की निगरानी में रखना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि बच्चे का विकास ठीक तरह से हो रहा है या नहीं। प्रथम छह माह के दौरान बच्चे को कुछ टीके लगाए जाते हैं जिनमें प्रमुख हैंµपोलियो, बी.सी.जी. (तपेदिक से बचाने के लिए), डी.पी.टी. (काली खाँसी, डिप्थीरिया और टिटेनस से बचाने के लिए), हेपेटाइटिस 'बी' और हीमोफ्लस इंफ्लुएंजा बी वैक्सिन (मेनिनजाइटिस और निमोनिया से बचाने के लिए)। बच्चों को ये टीके लगवाने बहुत जरूरी हैं क्योंकि ये टीके बच्चे को न सिर्फ बीमारियों से बचाते हैं बल्कि ये टीके बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तथा उसके विकास में भी सहायक होते हैं। 
प्रथम छह माह के दौरान बच्चे को कई तरह की समस्याएँ होती हैं लेकिन यह सामान्य है। बच्चा कभी-कभी दूध पीने के बाद उल्टी कर देता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चा दूध पीते समय कई बार काफी हवा अंदर ले लेता है जिससे हवा के दबाव के कारण उसे उल्टी हो जाती है। इसलिए माँ को हमेशा खुद बैठकर और बच्चे का सिर थोड़ा उठाकर दूध पिलाना चाहिए। बिस्तर पर लेटकर बच्चे को कभी भी दूध नहीं पिलाना चाहिए। दूध पिलाने के बाद बच्चे को कंधे से लगाकर अच्छी तरह से डकार दिला देना चाहिए ताकि सारी गैस बाहर निकल जाए। अगर गैस पूरी तरह से बाहर नहीं निकली हो तो बच्चे को या तो पेट के बल या करवट देकर सुला देना चाहिए। इससे बच्चे के पेट की गैस बाहर निकल जाएगी।
प्रथम छह माह में बच्चे की नाक का बंद होना और आँख से पानी आना एक प्रमुख समस्या है। कुछ बच्चों की नाक का पिछला हिस्सा पतला होता है जिसके कारण उसकी नाक बंद हो जाती है। इसे ठीक करने के लिए नाक के ऊपरी हिस्से पर हल्की मालिश करनी चाहिए। नाक में कोई दवा नहीं डालनी चाहिए बल्कि इसके लिए 15-20 लीटर साफ पानी को उबालकर ठण्डा कर उसमें करीब एक ग्राम नमक मिला लें और नाक बंद होने पर यही पानी एक-एक बूंद तीन-चार बार डालें। सुबह बनाया हुआ पानी दिन भर काम में लाया जा सकता है। इसी तरह बच्चे की आँख से पानी आने की समस्या भी सामान्य है। कुछ बच्चों की नेजल एक्राइमेंट डक्ट थोड़ी पतली होती है जिसके कारण आँख में बनने वाला पानी नाक के रास्ते बह नहीं पाता। इसके लिए आँख के भीतरी हिस्से में हल्के हाथ से मसाज करने से बच्चे को फायदा होता है और अधिकतर बच्चों में यह समस्या छह माह से लेकर एक साल तक काफी हद तक ठीक हो जाती है। 
छह माह से दो वर्ष तक — छह माह के बाद माँ का दूध कम होने लगता है और बच्चे के विकास के लिए यह पूरा नहीं पड़ता इसलिए बच्चे को माँ के दूध के अतिरिक्त ऊपर से गाय या भैंस का दूध, दाल, दूध और दाल की बनी चीजें जैसेµसाबूदाने की खीर, चावल की खीर, सूजी की खीर, दलिया, दही, दाल-चावल, खिचड़ी, फलों का रस आदि दे सकते हैं। लेकिन बच्चे को खिलाने से पहले इसे पीस कर अच्छी तरह से पेस्ट बना लेना चाहिए क्योंकि दाँत नहीं होने के कारण बच्चा चबा नहीं पाता और सिर्फ निगलता है। बच्चे का भोजन स्वादिष्ट रहना बहुत जरूरी है। इसे बनाते समय उसमें नमक, मसाले, चीनी, घी आदि आवश्यक मात्रा में डालें। हालाँकि लोगों में यह आम धारणा है कि बच्चे को घी, मसाले आदि नहीं देना चाहिए लेकिन ऐसा करना लगता है क्योंकि अगर बच्चे का खाना स्वादिष्ट नहीं होगा तो बच्चा नहीं खाएगा। बच्चे को दूध बोतल से न पिला कर चम्मच या कटोरी से पिलाना चाहिए। बोतल से दूध पिलाने से बच्चे को कई तरह के संक्रमण होने की आशंका होती है। बच्चे को डिब्बाबंद दूध या भोजन कभी नहीं देना चाहिए क्योंकि उष्णकटिबंधीय देशों में अधिक तापमान की वजह से डिब्बाबंद भोजन निर्धारित तिथि से पहले ही खराब हो जाते हैं जिससे बच्चे में संक्रमण की आशंका अधिक हो जाती है।
एक वर्ष की उम्र तक बच्चे की खुराक काफी बढ़ जाती है और वह अपनी माँ की आधी खुराक तक खाने लगता है। एक वर्ष का बच्चा तकरीबन 750 मिली दूध, आधा कटोरी दाल, एक अंडा, एक रोटी या चावल तक खा सकता है। इस दौरान बच्चे के विकास पर भी निगरानी रखनी जरूरी है। इसलिए हर दो या तीन माह पर बच्चे की लंबाई, वजन और सिर के घेरे की माप लेते रहना चाहिए। एक वर्ष की उम्र तक बच्चे का वजन तकरीबन जन्म के वजन से तीन गुणा, लंबाई 20 से 25 सेमी. अधिक तथा सिर की माप 10 सेंटीमीटर अधिक हो जाता है। 
एक वर्ष की उम्र तक बच्चे के मस्तिष्क का 80 प्रतिशत विकास हो जाता है और दो वर्ष की उम्र तक मस्तिष्क का 90 प्रतिशत विकास तथा बच्चे की लंबाई का 50 फीसदी विकास हो जाता है। इसके आधार पर बच्चे का ग्रोथ चार्ट देखकर बच्चे के वयस्क होने पर उसकी कुल लंबाई का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे भी इस उम्र के बच्चे को हर दो-तीन माह पर किसी विशेषज्ञ को दिखाते रहना चाहिए ताकि यह मालूम होता रहे कि बच्चे का विकास ठीक से हो रहा है या नहीं। 
छह माह से दो वर्ष की उम्र के बीच बच्चे को कुछ टीके लगवाने की भी जरूरत पड़ती है जिनमें प्रमुख हैंµखसरा, एम.एम.आर., पोलियो, डी.पी.टी. और हिब वैक्सीन का बूस्टर। दो वर्ष की उम्र में टाइफायड के भी टीके लगते हैं। एक से दो वर्ष की उम्र के बीच में बच्चे को चिकन पाॅक्स और हेपेटाइटिस 'ए' का इंजेक्शन भी लगवाया जा सकता है। इस उम्र के बच्चे हर चीज को अपने मुँह में डालने की कोशिश करते हैं जिससे इनमें संक्रमण होने की आशंका अधिक होती है। इसलिए इनकी साफ-सफाई का अधिक ध्यान रखना चाहिए। इस उम्र के बच्चों में एनीमिया (खून की कमी) होने की भी आशंका होती है क्योंकि बच्चे के अंदर के आयरन का भंडार एक-सवा साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते खत्म हो जाता है। दो वर्ष की उम्र तक बच्चा हरी सब्जियाँ नहीं खा पाता है या बहुत कम खाता है इसलिए उसके शरीर में आयरन की कमी हो जाती है। इसकी पूर्ति के लिए बच्चे को आयरन ड्राॅप्स और विटामिन 'बी' काॅम्प्लेक्स दिया जा सकता है। इस उम्र के बच्चों में खाँसी-जुकाम भी आम समस्या है। तकरीबन 50 फीसदी बच्चों में यह खाँसी-जुकाम वायरस के कारण होता है और यह अपने आप ठीक हो जाता है। इसमें बच्चे को एंटीबायोटिक आदि देने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर बच्चा ठीक नहीं हो रहा हो तो किसी बाल रोग विशेषज्ञ की सलाह से ही बच्चे को दवा देनी चाहिए। इस उम्र के बच्चों में डायरिया भी एक आम समस्या है जो कि जानलेवा भी साबित हो सकती है। दो वर्ष से कम उम्र के 50 से 60 फीसदी बच्चों में डायरिया या तो वायरस या अपच की वजह से होता है। वायरस के कारण होने वाले डायरिया की कोई दवा नहीं है। इसमें बच्चे के शरीर का पानी दस्त के रास्ते निकल जाता है। इसलिए बच्चे को दस्त शुरू होते ही उसे हर दस्त के बाद ओ.आर.एस. का 10 से 20 चम्मच घोल पिलाते रहना चाहिए। अगर किसी वजह से बच्चे को ओ.आर.एस. घोल का स्वाद अच्छा नहीं लगता है तो उसमें थोड़ी चीनी या अन्य चीज मिलाकर भी दे सकते हैं। अगर बच्चे के दस्त में खून या बदबू हो, बच्चे ने पिछले 12 से 24 घण्टे तक पेशाब नहीं किया हो, बच्चे को तेज बुखार हो या बच्चा सुस्त पड़ रहा हो तो बच्चे को किसी अच्छे विशेषज्ञ से दिखाना चाहिए। इस उम्र के बच्चे के बोलने को लेकर लोग काफी चिंतित रहते हैं। बच्चे का स्पीच सेंटर एक साल से चार साल की उम्र तक परिपक्व होता है। इसलिए कोई बच्चा डेढ़ साल की उम्र में तो कोई साढ़े तीन साल की उम्र में बोलता है। यह सामान्य बात है और इसे लेकर परेशान नहीं होना चाहिए। बच्चे के साथ काफी लोगों के बोलते रहने से बच्चा कुछ जल्दी बोल सकता है। बच्चे को अच्छे वातावरण में रखने से उसका विकास अच्छा होता है।
दो से छह साल तक — दो साल की उम्र के बाद बच्चा काफी हद तक आत्मनिर्भर हो जाता है। इसलिए माता-पिता बच्चे की तरफ कम ध्यान देते हैं जिससे इस समय काफी बच्चों का विकास गड़बड़ा जाता है। लेकिन इस दौरान बच्चे के विकास पर निगरानी रखना बहुत जरूरी है इसके लिए बच्चे को हर तीन से छह माह के बीच में किसी अच्छे विशेषज्ञ को दिखाते रहना चाहिए और ग्रोथ चार्ट पर उसकी लंबाई आदि मापते रहना चाहिए। अगर कभी ऐसा लगे कि बच्चे का विकास ठीक से नहीं हो रहा है तो उसे किसी विशेषज्ञ से दिखाना चाहिए क्योंकि बच्चे का शारीरिक विकास ठीक से नहीं होने पर उसका असर मानसिक विकास पर भी पड़ता है और बच्चे की बुद्धि क्षमता थोड़ी कम हो जाने की आशंका हो जाती है। हालाँकि इससे बुद्धि क्षमता बहुत ज्यादा कम नहीं होती है। अगर किसी बच्चे का शारीरिक विकास ठीक रहने पर उसकी बुद्धि क्षमता 100 प्वाइंट होगी तो उसका शारीरिक विकास ठीक नहीं होने पर उसका मानसिक विकास 90 या 95 प्वाइंट ही रह जाएगा। आम जिंदगी में तो इसका पता नहीं चल पाता लेकिन शारीरिक और मानसिक विकास ठीक रहने पर जो बच्चा क्लास में प्रथम आता वह शारीरिक और मानसिक विकास ठीक नहीं होने पर क्लास में 50वें स्थान पर आएगा। बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास ठीक रखने के लिए उसे ऐसी खुराक की जरूरत होती है जिसमें प्रोटीन, विटामिन 'बी' काॅम्प्लेक्स, आयरन, कार्बोहाइड्रेट और वसा उचित मात्रा में हो। दो साल से छह साल के शाकाहारी बच्चों को एक लीटर दूध या दूध से बनी चीजें जैसे सूजी की खीर, साबूदाने की खीर, दही, दलिया के अलावा दो या तीन कटोरी दाल या दाल की बनी चीजें देना जरूरी है। साथ ही हरी सब्जियाँ और फल भी खिलाना चाहिए। इस उम्र में बच्चे के विकास के लिए टीकाकरण भी जरूरी है जैसे दो साल की उम्र के बाद बच्चे को टायफाइड और चार से पाँच साल के बीच में पोलियो, डी.पी.टी., टायफाइड, मेनिनजाइटिस और हेपेटाइटिस 'बी' का बूस्टर लगना जरूरी है। बच्चे को दस्त, खाँसी आदि की समस्या होने पर बच्चे को विशेषज्ञ को दिखा लेना चाहिए। 
तीन-चार साल की उम्र में बच्चा स्कूल जाना शुरू करता है। चूंकि इससे पहले बच्चा घर में ही रहता है और वह अपना अधिकतर समय माँ के साथ बिताता है इसलिए वह स्कूल जाने से डरता है। इसलिए बच्चे को ऐसे स्कूल में डालें जहाँ बच्चे पर पढ़ाई का बिल्कुल बोझ नहीं हो और उसे खेलने-कूदने का काफी अवसर मिले। स्कूल में उसकी दोस्ती कुछ बच्चों से करा दें और खुद भी समय-समय पर जाकर बच्चे से मिलते रहें ताकि बच्चा स्कूल के माहौल में दिलचस्पी लेने लगे।
छह साल से अठारह साल तक — छह से अठारह साल के उम्र के बीच भी बच्चे का काफी विकास होता है। इस दौरान भी छह-छह महीने पर बच्चे की लंबाई और वजन को ग्रोथ चार्ट पर मापना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि बच्चे का विकास उसके जन्म के समय के लंबाई और वजन के अनुसार हो रहा है या नहीं। इस दौरान भी बच्चे को पौष्टिक आहार देना जरूरी है। शाकाहारी बच्चे को तकरीबन एक से डेढ़ किलो दूध या दूध से बनी चीजें, तीन-चार कटोरी दाल या दाल की बनी चीजें, फल, सब्जियाँ देना जरूरी है। इस उम्र के बच्चों में आजकल टाॅफी, चाॅकलेट, भुजिया, नमकीन, कोल्ड ड्रिंक्स, पीजा जैसे फास्ट फूड का फैशन बहुत ज्यादा हो गया है। इन सब खाद्य पदार्थों में कैलोरी तो बहुत ज्यादा होती है लेकिन प्रोटीन या आयरन बहुत कम होता है साथ ही इससे संक्रमण होने की भी आशंका होती है और इससे बच्चे के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जबकि बच्चे के विकास के लिए प्रोटीन और आयरन बहुत जरूरी है इसलिए बच्चे को फास्ट फूड का सेवन नहीं करने देना चाहिए बल्कि उसे घर का बना पौष्टिक आहार देना चाहिए ताकि बच्चे का विकास ठीक से हो।
इस उम्र में बच्चे के ऊपर पढ़ाई का बहुत अधिक बोझ डाल दिया जाता है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि पढ़ाई के कारण बच्चे के खेलने-कूदने की प्रक्रिया में बाधा नहीं आनी चाहिए। बच्चे का बाहर खेलना, साइकिल चलाना, रस्सी कूदना, दौड़ना आदि बहुत जरूरी है। इन दिनों टेलीविजन का प्रचलन अधिक होने के कारण बच्चे लगातार काफी-काफी देर तक टेलीविजन देखते रहते हैं जिससे बच्चे की आँख पर असर पड़ता है और शारीरिक सक्रियता कम हो जाती है। वैसे भी आजकल टेलीविजन और इंटरनेट पर हिंसा और सेक्स से भरपूर कार्यक्रम आते हैं जिसे देखना बच्चे के लिए ठीक नहीं है। कोशिश करें कि बच्चा खाली समय में घर से बाहर खेले।
हमारे देश में बच्चे के विकास के प्रति बहुत लापरवाही बरती जाती है उसके विकास का लेखा-जोखा भी नहीं रखा जाता है। किसी भी उम्र में जब बच्चे के शारीरिक विकास में बाधा आती है तो उससे उसका मानसिक विकास भी प्रभावित होता है। यही कारण है कि विकसित और विकासशील देशों के लोगों की बुद्धि क्षमता में पाँच से दस प्वाइंट का फर्क होता है। 
बहुत से माता-पिता अपने बच्चे की लंबाई के प्रति चिंतित रहते हैं। बच्चे की लंबाई बच्चे के पैदा होते समय ही निर्धारित हो जाती है। अगर बच्चे का ठीक से ध्यान रखा जाए तो दो साल के बच्चे की लंबाई देखकर यह बताया जा सकता है कि युवा होने पर उसकी लंबाई कितनी होगी। लेकिन बच्चे का ठीक से ध्यान नहीं रखने पर उसकी लंबाई पर कुछ फर्क पर सकता है जैसे उसकी लंबाई अगर सही देखभाल होने पर 170 सेमी होती तो सही देखभाल नहीं होने पर उसकी लंबाई 155 या 160 सेमी रह जाएगी। हम बच्चे की सही देखभाल कर इसी लंबाई को बढ़ा सकते हैं। हालाँकि 50 फीसदी बच्चों के विकास में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आती है लेकिन शेष 50 फीसदी बच्चों के विकास को चरम सीमा पर पहुँचाने के लिए उपर्युक्त बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। 


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