एक व्यक्ति जो बहुत शांत स्वभाव का हो, जो पढ़ाई में अव्वल रहा हो और जो लाखों रूपये की नौकरी पाकर मां-बाप के सपने को पूरा कर चुका हो वह क्या इतना अमानुष एवं अमानवीय, बल्कि जानवर से भी अधिक निर्मम हो सकता है कि अपनी उसी जीवन साथी की हत्या करके उसकी बोटी-बोटी काट डाले। क्या इस भौतिकवाद और उपभोक्तावादी दुनिया में जब केवल पैसे और सफलता की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरने वाला व्यक्ति आखिर मनुष्यता की निम्नतम स्तर कसौटी पर क्यों नहीं खरा बैठ रहा है। अगर ऐसा है तो हमें अपनी परिभाषाओं को बदलनी होगी और हमें सोचना होगा कि हम जहां जा रहे हैं वही क्या हमारी मंजिल है। पेश है डा. वीणा शर्मा का आलेख।
एक लंबे अंतराल के बाद फिर उपस्थित हूँ। मैं इतने दिनों तक मौन क्यों हो गई? क्यों मेरी अंगुलिया की बोर्ड को नहीं छू पाई ? आज क्या हुआ कि हाथ फिर से गति पकड़ रहे हैं? सच सवाल तो बहुत हैं पर उत्तर कहीं नहीं दिखाई देता। क्या आपके साथ भी ऐसा होता है जब आप अचानक चुप हो जाए और आपको ही कारण पता नहीं हो। क्या इन दिनों कुछ भी ऐसा नहीं घटा जिसे मैं आपके साथ बाँट पाती, या जो घटा उसे इतना निजी समझा गया कि उसे कहने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। कभी-कभी तो ये अंतराल बहुत सुखद होता है जब आप अपनी ऊर्जा को फिर से संचित कर आ बैठते हैं। पर सच कहूँ कभी-कभी घटनाओं को पचाने में बहुत समय लग जाता है और हम तुरंत टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं होते?
क्या ऐसा ही होता है पति और पत्नी का रिश्ता कि एक साथी दूसरे के प्रति इतना क्रूर हो जाए कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर दे और बच्चों को खबर तक ना हो। क्या ये दंपत्ति फेरों के समय दिए गए वचनों को नहीं सुनते अथवा इन्हें टेकिन फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं। और यदि प्रेम विवाह है तो स्थिति और भी अधिक शोचनीय है। आखिर हम किस प्रेम के वशीभूत होकर अपने लिए जीवन साथी का चयन करते हैं? क्या विवाह करने का अर्थ केवल सामने वाले को अपने अनुकूल ही बना लेना हैं। क्या एक व्यक्ति अपनी अस्मिता खोकर ही दूसरे में निमग्न हो तो प्यार और कहीं उसने भी अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश की तो हश्र हमारे सामने। आखिर आप जीवन साथी चुन रहे होते है या अपने अहम की तृप्ति के लिए एक गोटी खरीद रहे होते है। जैसा एक चाहता है यदि दूसरा वैसा बन गया तो मामला ठीक और कहीं उसने भी अपनी जिदें अपने अभिमान को या कहें स्वाभिमान को रखना शुरू
कर दिया तो सबकुछ खत्म। आखिर क्यों हो जाते हम इतने पजेसिब कि सामने वाले की हर छोटी बड़ी बात हमने चुभने लगती है। शायद हमने कभी सीखा ही नहीं कि आप दो एक हो रहे हैं ना कि एक अपना अस्तित्व खो रहा है । क्या हमारी संवेदनाएं बिलकुल ही मर गई ? हमारे पढ़े-लिखेपन ने ही हमें ऐसा जानवर बना दिया कि छोटे मोटे मुद्दों पर हम इतने असहनशील हो गए कि हमें सामने वाले को मारना ही रास आया। दरअसल हमें इस द्रष्टि से कभी सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई? बस पढ-लिख लिए, नौकरी मिल गई और शादी कर ली। विवाह जैसे महत्वपूर्ण मसले पर इस द्रष्टि से कभी सोचा ही नहीं गया। आखिर विवाह की ढेरों तैयारी के मध्य ये अहम मसला क्यों उपेक्षित छूट जाता है। हम वर और वधु देखते हैं, उसकी पढाई-लिखाई, घर, संस्कार देखते है पर कभी भी यह आवश्यक नहीं समझते कि विवाह से पूर्व भावी जीवन साथियों को उन महत्वपूर्ण मसलों पर चिंतन करने योग्य बना दें जिनकी आवश्यकता उन्हें जीवन में हर पल पडती हैं। एम.ए, बी.ए. और एम.बी.ए की पढाई पढकर नौकरी तो की जा सकती है, पैसा तो कमाया जा सकता है पर गृहस्थी चलाने के लिए , एक दूसरे को समझने के लिए, उत्तरदायित्व निभाने के लिए जो शिक्षा उसे चाहिए, वह तो कभी दी नहीं गई। बस मानलिया गया कि तुम बड़े हो गए हो पढ़-लिख गए हो, नौकरी पेशे में होतो चलो अब शादी कर देते हैं। और जब ये बच्चे इस जिंदगी को निभाने में असफल हो गए तब कहा जाने लगा अरे भाई अपनी शादी भी नहीं बचा सकें। वे बेचारे क्या करें कभी अपने माता-पिता के दाम्पत्य से सीखते है तो कभी अपने हमउम्र दोस्तों से सलाह लेते हैं। कहीं भी कोई कोशिश इनं विवाह सम्बंधों को बचाने की नहीं हो रही। यदि बुजर्गों से पूछो तो वे कह देते हैं अरे हमने इतनी निभा ली तुमसे इतना भी नहीं होता। और अब तो एकल परिवार ही अधिक है जहां सब कुछ अकेले ही निपटाना है। जीवन जीने के तरीके अलग-अलग होते हैं। कोई जरूरी नहीं जो आपको बहुत पसंद हो वही दूसरे की भी पसंद हो। फिर भी साथ रहने के लिए कुछ तो को मन होना जरूरी होता है मसलन एक दूसरे की इच्छाओं का सम्मान, पारिवारिक कार्यों को मिल-बांट कर पूरा करना, बच्चे की परवरिश का साझा दायित्व, एक दूसरे के प्रति और उनके सम्बन्धियों के प्रति सामान्य व्यवहार, सामने वाले के दुःख का अहसास। पर इन गुणो को विकसित करने की तो जिम्मेवारी ही नहीं समझी जाती। बस ले बेटा बडे से कोलेज में एडमीशन, कर टॉप, और फिर खोज नौकरी कम से कम लाखों के पैकेज वाली। बस यही हम सिखाना चाहते थे और यही उसने सीख लिया। फिर शिकायतें क्यों और किससे ? कोई भी व्यक्ति एक दिन में ही बहुत खराब और अच्छा नहीं हो जाता। दिनप्रति दिन का व्यवहार उसके व्यक्तित्व को निर्धारण करता है। अब्बल तो हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं और कभी चला भी गया तो इसे बेबकूफी जैसी बातें मानकर नजर अंदाज कर दिया जाता है। हम कितने धैर्यवान है, विपरीत परिस्थितियों में अपने को कितना व्यवस्थित रख पाते है, हमारा चिंतन कितना सकारात्मक है - कई बार जब हमारा कोई काम बिगड जाता है तो हम अपना विश्लेषण करने के बजाय अपने से कमजोर पर बरस बैठते हैं। बस सारी गलती उसके सर डाली और हो गए मुक्त। पर ऐसा कितने दिन चल पायेगा। कभी तो सामने वाले की सहन शक्ति भी जबाव दे जायेगी ।फिर आप क्या करेंगे। समस्या तो अब इतनी गंभीर होती जा रही है कि अब विवाह करने से पहले व्यक्ति बहुत बार सोचता है, कहीं यह जिंदगी भी दू भर न हो जाए। जीवन साथी की तलाश जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए की जाती है अब यदि जिंदगी न रहे, वह ही किसी के क्रोध और पागलपन की भेंट चढ जाए तो काहे का जीवनसाथी और कैसा जीवन साथी। अब विवाह माता-पिता के लिए केवल अपने दायित्व से मुक्ति ही नहीं है, केवल हाथ पीले कर देना ही नही है बल्कि अपने बच्चों को ढेर सारी योग्यताओं के साथ जीवन जीने की कला में निपुण कर देना भी है। यदि समय
रहते यह चुप्पी नहीं टूटी, तो परिणाम बहुत ही भयंकर हो सकते हैं। भलाई इसी में है कि हम सभी समय रहते जाग जाएँ।
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