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लाइलाज नहीं बच्चों में तपेदिक या क्षय रोग

तपेदिक या क्षय रोग की बीमारी एक घातक बीमारी है। बच्चों में यह बीमारी और भी घातक है क्योंकि बच्चे के शरीर के विभिन्न अंग, जिनमें तपेदिक प्रभाव डालती है विकास की अवस्था में होते हैं और इस बीमारी के होने से उनका विकास अवरुद्ध होने की पूरी संभावना होती है। दुर्भाग्यवश यह बीमारी भारतवर्ष में सामाजिक दृष्टि से काफी खराब मानी जाती है। यहाँ तक कि समाज के कुछ वर्गों में इन बीमारी से ग्रसित मरीज का सामाजिक बहिष्कार तक किया जाता है। प्राचीन काल में यह शायद इसलिए होता था क्योंकि इस बीमारी का तब कोई इलाज नहीं था और बीमारी का एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में मुँह से निकले बलगम के द्वारा फैलने का डर रहता था। लेकिन आज इस बीमारी का शत-प्रतिशत इलाज संभव है और इलाज के एक या दो महीने के भीतर ही बीमारी ग्रसित मनुष्य से संक्रमण किसी और को होने का खतरा भी खत्म हो जाता है। इसलिए आज जरूरत है लोगों को शिक्षित करने की ताकि इस बीमारी को भी अन्य संक्रमण के समान ही समझें और इस बीमारी से ग्रसित मरीज का केवल इलाज ही सही ढंग से न कराएँ, वरन् उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी बरकरार रखें। 
तपेदिक की बीमारी का प्रकोप भारतवर्ष में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में व्याप्त है। एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में तकरीबन 40-50 करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रसित हो सकते हैं। इनमें से तकरीबन 3-4 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके मुँह से बलगम आता है तथा इससे यह बीमारी दूसरे लोगों को फैल सकती है। विकासशील देश जैसे भारत इत्यादि में इस बीमारी का खतरा विकसित देशों जैसे अमेरिका इत्यादि की तुलना में 20-25 गुणा ज्यादा है। क्योंकि वयस्क लोगों से ही यह बीमारी बलगम के जरिये बच्चों में भी फैलती है। इसलिए बच्चों में भी इस बीमारी का प्रकोप काफी ज्यादा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार करीब 35 लाख बच्चे तपेदिक से ग्रस्त हैं जबकि तकरीबन एक-दो करोड़ बच्चों में इस बीमारी के होने की संभावना काफी ज्यादा है।
वैसे तो यह बीमारी किसी भी वर्ग या समाज के बच्चे को हो सकती है लेकिन निम्न श्रेणी के बच्चों में इसके होने के आसार ज्यादा हो सकते हैं। 
 1. अति भीड़-भाड़ वाले झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चे
 2. कुपोषण या एनीमिया के शिकार बच्चे
 3. खसरा, काली खाँसी इत्यादि से ग्रसित बच्चे
 4. जिन बच्चों के घर के आसपास किसी वयस्क को बलगम वाली तपेदिक है।
 5. जो बच्चे किसी बीमारी के लिए स्टेराॅयड जैसी दवाईयाँ ले रहे हों।
 6. जिन बच्चों को बी.सी.जी. का टीका न लगा हो।
इस श्रेणी में आने वाले बच्चों की खास देखरेख करने की जरूरत है।
तपेदिक एक बहुत ही गंभीर बीमारी है क्योंकि यह बच्चे के शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकती है। उसी के अनुसार यह निम्न प्रकार की हो सकती हैµ
 1. बच्चों में सबसे सामान्य फेफड़े की तपेदिक है।
 2. दूसरे नंबर पर गले के लिम्फ नोड्स की तपेदिक है।
 3. दिमाग की तपेदिक
 4. पेट की तपेदिक
 5. हड्डियों की तपेदिक
 6. इसके अलावा कभी-कभी तपेदिक अन्य अवयव जैसे यूरिनरी सिस्टम(गुर्दे एवं उससे संबंधित अवयव), हृदय की माँसपेशियाँ इत्यादि पर भी असर डालती है। एक तरह से यह बीमारी शरीर के किसी भी हिस्से पर प्रभाव डाल सकती है।
बच्चों में तपेदिक बीमारी का शक कुछ लक्षणों के आधार पर किया जा सकता है। इन लक्षणों का दो भागों में अध्ययन किया जा सकता है। 
 सामान्य लक्षण- जैसे बच्चे की भूख कम हो जाना, बच्चे को हल्का बुखार रहना, बच्चे का विकास रुक जाना इत्यादि
 विशेष लक्षण- ये लक्षण बच्चे के विभिन्न भागों पर प्रभाव के कारण हो सकते हैं जैसे-
 1. फेफड़े की तपेदिक में बच्चे के साँस का तेज चलना इत्यादि, कुछ बच्चों में खाँसी हो सकती है। लेकिन इसमें बलगम नहीं आता है। इसलिए बच्चे के फेफड़े की तपेदिक से दूसरे लोगों को संक्रमण नहीं हो सकता है। 
 2. गले के लिम्फ नोड की तपेदिक में बच्चे के गले के ऊपर बड़ी-बड़ी गिल्टियाँ निकल आती हैं। ये गिल्टियाँ आपस में जुड़ भी सकती है। कभी-कभी इन गिल्टियों में मवाद आने से ठण्डा फोड़ा(कोल्ड एबसेस) बन सकता है। 
 3. दिमाग की तपेदिक एक भयंकर बीमारी है। इसमें बच्चे को बेहोशी व दौरे आ सकते हैं। इसका जल्द से जल्द इलाज करना चाहिए अन्यथा इसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। 
 4. पेट की तपेदिक में बच्चे के पेट में पानी आने से पेट फूल सकता है। बच्चे को आँत की तपेदिक होने पर आँत में रुकावट हो सकती है जिससे बच्चे को बार-बार पेट में दर्द होना, उल्टी होना, शौच का रूक जाना इत्यादि हो सकता है। इसका जल्द से जल्द इलाज जरूरी है अन्यथा आँत के फटने का डर रहता है। 
 5. हड्डी की तपेदिक में सबसे प्रमुख रीढ़ की हड्डी की तपेदिक है जिससे वहाँ पर कुबड़ापन हो जाता है। इसका जल्द इलाज करने की जरूरत है अन्यथा बच्चे की रीढ़ की हड्डी के अंदर मौजूद स्पाइनल काॅर्ड रोगग्रस्त होने से बच्चे के शरीर के नीचे के भाग जैसेµपैर, पेशाब की ग्रंथि, शौच की ग्रंथि इत्यादि प्रभावित हो सकते हैं। इसके अलावा तपेदिक कूल्हे, घुटने और टखने के जोड़ को प्रभावित कर सकती है जिससे बच्चे के जोड़ों में सूजन आ सकती है और बच्चे को चलने में लंगड़ापन आ सकता है। इस तरह के बच्चों में भी जल्दी जाँच एवं इलाज कराने की जरूरत है अन्यथा यह बीमारी पूरे जोड़ को समाप्त कर सकती है। इसका पता लगाने के लिए आधुनिक परीक्षण जैसे एम.आर.आई. का उपयोग किया जा सकता है। मैंने हड्डी की तपेदिक के तकरीबन 30 से ज्यादा बच्चों का इलाज किया है। इस समय यह सब बच्चे बिल्कुल ठीक हैं। इसमें सबसे प्रमुख बात है किसी जानकार विशेषज्ञ से जल्द से जल्द इलाज कराने की।
 6. अगर किसी बच्चे को बार-बार पेशाब में संक्रमण होता है और यह सामान्य एंटीबायोटिक से ठीक नहीं होता है तो तपेदिक का शक होना जरूरी है।
इस तरह विभिन्न लक्षणों के आधार पर अभिभावकों को सतर्क हो जाना चाहिए तथा तुरन्त किसी विशेषज्ञ से मिलकर जल्द जाँच-पड़ताल और उपयुक्त उपचार कराना चाहिए।
तपेदिक की बीमारी का पता लगाने में कई बार बहुत मुश्किल होती है। इसके लिए बहुत से आधुनिक जाँच-पड़ताल के जरिये, जैसे-तपेदिक के जीवाणु का पी.सी.आर. विधि द्वारा मालूम करना, एलिसा, एफ.एन.ए.सी. और बायोप्सी, एम.आर.आई. और सी.टी. स्कैन आदि उपलब्ध हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतवर्ष में यह सब केवल बड़े अस्पतालों जैसे-आयुर्विज्ञान मेडिकल, अपोेलो अस्पताल आदि में ही उपलब्ध है। इन्हीं आधुनिक जाँच-पड़ताल के जरिये मैंने अपोलो अस्पताल में बहुत से पेट, हड्डी और दिमाग की तपेदिक(खासकर ट्यूबरकुलोमा) के बच्चों का प्रारंभिक अवस्था में ही पता लगाया है और इससे इसका सफल इलाज संभव हो सका क्योंकि अगर बीमारी का पता लगाने में जरा भी देर होती है तो इससे बीमारी के बढ़ने का खतरा होता है और तब इसका सफल इलाज संभव नहीं होता।
तपेदिक की बीमारी की रोकथाम के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम चला रखे हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इसमें बच्चों की तपेदिक के बारे में कोई प्रभावपूर्ण कदम नहीं है। मेरा मानना है कि जब तक समाज का हर सदस्य इस बीमारी से लड़ने में सहयोग नहीं देगा तब तक इसे जड़ से खत्म करना मुश्किल है। अगर निम्न बातों पर ध्यान दिया जाए तो बच्चों में तपेदिक के रोग को काफी हद तक कम किया जा सकता है-
 1. हर बच्चे को जन्म के तुरन्त बाद बी.सी.जी. का टीका लगवाया जाए। 
 2. बच्चे की नियमित जाँच-पड़ताल किसी स्वास्थ्य केंद्र या बाल रोग विशेषज्ञ से करानी चाहिए ताकि बच्चा एनीमिया या कुपोषण का शिकार न हो सके। बच्चे को सभी जरूरी टीके जैसे-काली खाँसी, खसरा इत्यादि समय पर लगवाने चाहिए क्योंकि इन सब बीमारियों के होने पर बच्चे की प्रतिरक्षण क्षमता कम हो जाती है जिससे उस पर तपेदिक के जीवाणु के हावी होने के आसार बढ़ जाते हैं। 
 3. चूंकि सामाजिक रूप से यह एक खराब बीमारी मानी जाती है इसलिए अभिभावक इसे किसी से भी छुपाकर रखते हैं जिससे बच्चे के तपेदिक के इलाज में देर होती है। इसी कारण तपेदिक ग्रस्त वयस्क लोगों के बलगम से इस बीमारी का बच्चों में फैलने की भी संभावना बनी रहती है। अगर इसका जल्द इलाज किया जाए तो बलगम एक-दो महीने के अंदर कीटाणुरहित हो जाता है जिससे इसके दूसरे लोगों में फैलने के आसार कम होंगे।
 4. इस बीमारी का इलाज लंबे समय(6-12 माह) तक चलता है। लेकिन बहुत से अभिभावक इसका इलाज 2-3 माह के बाद (जब बच्चा कुछ ठीक लगने लगता है) ही अपने आप से बंद कर देते हैं। इससे बीमारी कुछ अंतराल के बाद फिर आ जाती है। इस तरह के तपेदिक के जीवाणु तपेदिक की सामान्य दवाईयों से प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर लेते हैं और तब इसका ठीक होना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर ऐसा व्यक्ति बलगमी खाँसी वाला है तो वह लंबे समय तक तपेदिक के जीवाणु समाज के अन्य सदस्यों को फैलाता रहेगा। इसलिए जरूरत है इस बीमारी का पूरी लगन से इलाज करने की- न केवल अपने बचाव के लिए वरन् समस्त समाज के हित हेतु।
 5. बच्चों को अधिक भीड़-भाड़ वाले और अधिक नमी वाले स्थान में (जहाँ धूप के दर्शन ही न हों ) नहीं रखना चाहिए।
बच्चों में तपेदिक के इलाज के लिए आजकल काफी अच्छी दवाईयाँ उपलब्ध हैं। लेकिन ये दवाईयाँ किसी विशेषज्ञ की निगरानी में सही समय, सही मात्रा और सही अंतराल में देने की जरूरत है अन्यथा यह बच्चे को नुकसान भी कर सकती है। बच्चे में किसी भी दवा का चयन करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह बच्चे के विकास पर कोई प्रतिकूल असर न डाले। मैंने अपोलो अस्पताल में तपेदिक के 500 से अधिक बच्चों को इलाज किया हैै। जिन बच्चों के अभिभावकों ने बीमारी को गंभीरता से लिया तथा इलाज निर्देशानुसार किया उनमें इलाज सफल रहा तथा बच्चों के विकास पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ये सभी बच्चे बिल्कुल स्वस्थ हैं।


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