आकाश चंद शर्मा बिहार पुलिस की नौकरी में हैं। अपराधियों से मुठभेड़ के दौरान उनके सिर में गोली लगी थी। गोली लगने के बाद वह लंबी बेहोशी में चले गये। उनके परिवार वालों और सहकर्मियों ने तो उन्हें बचने की पूरी उम्मीद छोड़ दी थी लेकिन वह सबको आश्चर्य में डालते हुये मौत को पछाड़ कर जीवित बच निकले बल्कि होश में आने के कुछ ही दिनों बाद सामान्य कामकाज करने में सक्षम हो गये। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है लेकिन न्यूरो सर्जरी की नवीनतम आधुनिकतम तकनीकों की बदौलत आज इस तरह का चमत्कार समान्य घटना की तरह हो गया है।
आज न्यूरो सर्जरी की आधुनिकतम तकनीकों, कम्प्यूटरों एवं रोबोट के अर्विभाव के कारण मस्तिष्क की गंभीर चोटों अथवा गंभीर दिमागी बीमारियों के शिकार व्यक्ति को न केवल बचाना बल्कि आपरेशन के बाद उसकी रोजमर्रे की सक्रियता को कायम रखना संभव हो गया है।
आज इंडास्कोपी, स्टीरियोटैक्टिक एवं रोबोटिक सर्जरी की बदौलत एक समय खतरनाक और अत्यंत असुरक्षित माने जाने वाली मस्तिष्क और स्पाइन की सर्जरी अत्यंत सुरक्षित, आसान एवं कारगर बन गयी है। कुछ वर्ष पूर्व तक लोग मस्तिष्क या स्पाइन सर्जरी कराने से डरते थे, क्योंकि इसमें आपरेशन के लिये मस्तिष्क को खोलना पड़ता था या काफी चीर-फाड़ करनी पड़ती थी जिससे काफी रक्त स्राव होता था और इससे मस्तिष्क या स्पाइन के दूसरे भागों को भी क्षति पहुंचने की आशंका होती थी। अक्सर मरीज आपरेशन के बाद कई-कई सप्ताह तक बेहोश ही रहता था अथवा उसे कई तरह के दुष्प्रभाव होने की आशंका होती थी लेकिन आज मस्तिष्क की सर्जरी पूरी तरह से सुरक्षित बन गयी है।
न्यूरो सर्जरी के क्षेत्र में स्टीरियोटेक्टिक तकनीक एक महत्वपूर्ण क्रांति है। स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी दो तरह की होती है - फ्रेम वाली और बिना फ्रेम वाली। फ्रेम वाली स्टीरियोटेक सर्जरी तो करीब 30.40 साल से हो रही है लेकिन बिना फ्रेमवाली स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी का प्रचलन हाल में शुरू हुआ है। फ्रेम वाली स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी में इसमें रोगी के सिर पर एक फ्रेम लगाया जाता है और कैलकुलेट करके ट्यूमर का पता लगाया जाता है, उसके बाद उसका बायोप्सी ली जाती है या उसे निकाला जाता है। कुछ सालों से फ्रेम वाली स्टीरियोटेक सर्जरी में कम्प्यूटर का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसमें कम्प्यूटर के द्वारा कैलकुलेट करके ट्यूमर का पता लगाया जाता है और सीटी स्कैन या एम.आर.आई. से डाटा देखकर आपरेशन की जाती है। फ्रेमलेस स्टीरियोटैक्सी में रोगी के सिर में कुछ मार्कर्स लगाकर सीटी स्कैन या एम.आर.आई. की मदद से सर्जरी की जाती है। इसके तहत सिर में छोटा सा छेद करके ट्यूमर का पता लगाया जा सकता है और इससे दो मिलीमीटर के ट्यूमर भी निकाले जा सकते हैं। फ्रेमलेस स्टीरियोटैक्सी सर्जरी में अब रोबोट की मदद भी ली जाने लगी है। इसके तहत स्टीरियोटैक्टिक का डाटा आपरेशन थियेटर के कम्प्यूटर पर भेज दिया जाता है जो रोबोट को बताता है कि ट्यूमर कहां पर और कितनी गहराई में है। इसके बाद रोबोट के हाथ की मदद से सर्जरी की जाती है। हालांकि हमारे देश में अभी रोबोटिक सर्जरी सिर्फ अपोलो अस्पताल में ही उपलब्ध है और यहां सौ से अधिक रोबोटिक आर्म संचालित फ्रेमलेस स्टीरियोटौकी सर्जरी हो चुकी है।
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरी महत्वपूर्ण कामयाबी इंडोस्कोपी है। डिस्क की समस्याओं के समाधान के लिये इंडोस्कोपी की मदद से सर्जरी की जा सकती है। इसके तहत नस को दबाने वाला डिस्क से मांस का छोटे से टुकडे़ को निकाल लिया जाता है। इसमें दो-तीन सेंटीमीटर से भी कम के अत्यंत छोटे चीरे लगाने की जरूरत पड़ती है इस चीरे के जरिये कैमरायुक्त स्कोप डाला जाता है। जबकि सामान्य आपरेशन के लिये काफी बड़ा चीरा लगाना पड़ता है और उस बड़े चीरे से भी काफी छोटे टुकड़े को निकालना पड़ता है। मस्तिष्क में ट्यूमर, हाइड्रोसेफलस आदि का आॅपरेशन अब इंडोस्कोपी तकनीक से होने लगा है। इस तकनीक के तहत मस्तिष्क में एक छोटा सा छेद करके चार-पांच मिलीमीटर का स्कोप और कैमरा डालकर मस्तिष्क के ट्यूमर का आॅपरेशन किया जाता है। आजकल पिट्यूटरी ट्यूमर का आपरेशन इंडोस्कोपी के द्वारा ही नाक के माध्यम से होने लगा है जिसमें एक भी टांका नहीं लगता है। इंडोस्कोपी तकनीक का इस्तेमाल हाइड्रोसेफलस के आपरेशन में भी होने लगा है। हाइड्रोसेफलस में रोगी के सिर में पानी भर जाता है जिससे उसका सिर बड़ा हो जाता है।
आज मस्तिष्क की सर्जरी के बाद दो से तीन दिन की भीतर ही मरीज अस्पताल से छुट्टी पाकर घर जा सकता है और एक सप्ताह बाद अस्पताल आकर टांके निकलवा होगा। इससे मरीज को मनोवैज्ञानिक लाभ होता है और उसे यह नहीं लगता है कि कोई बड़ा आपरेशन हुआ है।
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरा बड़ी क्रांति स्पाइनल प्लेटिंग है। जब से चोट,तपेदिक और डिस्क संबंधी समस्याओं के कारण रीढ़ कमजोर हो जाती है तो मरीज की रीढ़ में प्लेट लगाकर मरीज को शीघ्र चलने-फिरने लायक बनाया जा सकता है। इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती है। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रयुमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती हैं और मरीज सामान्य जीवन जीने लायक हो जाता है। स्पाइनल प्लेटिंग करने वाले चिकित्सक का पूर्णरूप से प्रशिक्षित होना आवश्यक है। इसमें रीढ़ के अत्यंत छोटे हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म स्क्रू की मदद से बहुत छोटी-सी प्लेट को प्रत्यारोपित करना पड़ता है। प्लेटिंग के लिये टाइटेनियम अथवा इस्पात की प्लेट का इस्तेमाल होता है जो शरीर में किसी तरह की प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यह प्लेट शरीर का ही हिस्सा बन जाती है और इसलिये कुछ समय बाद रीढ़ के क्षतिग्रस्त भाग के मजबूत बन जाने के बाद प्लेट को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है। यह प्लेट जिंदगी भर चलती है। लेकिन किसी कारण या दुर्घटनावश अगर प्लेट के साथ कोई दिक्कत हो जाये तब इसे आपेरशन करके निकाल लिया जाता है।
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की और उपलब्धि माइक्रो डिस्क एक्टमी के रूप में सामने आयी। इसमें माइक्रोस्कोप की मदद से डिस्क एक्टमी की जाती हैं इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इसमें कैमरा युक्त स्कोप डालकर पिट्युटरी या अन्य ट्यूमर को निकाला जा सकता है। इस आपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता बल्कि स्थानीय एनीस्थिया से भी आपरेशन हो सकता है। मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है।
मस्तिष्क में गहरी चोट लगने पर मस्तिष्क के भीतर रक्त के जम जाने का खतरा बहुत अधिक होता है। इसके लिये क्रिनियोटोमी तकनीक का सहारा लिया जाता है। मस्तिष्क के आपरेशन की एक नयी तकनीक तकनीक की मदद से 30 मिनट में ही खोपड़ी को खोलकर क्लाॅट को बाहर निकाला जा सकता है। जबकि इसी आपरेशन को परम्परागत तरीके से हाथ से करने पर आपरेशन में करीब तीन घंटे लगते है।
मस्तिष्क सर्जरी का बदलता परिदृश्य
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