दुर्घटनाओं एवं अन्य कारणों से हड्डियों के फ्रैक्चर होने पर प्लास्टर अथवा स्टील की प्लेट या राॅड लगाकर मरीज को लंबे समय तक के लिये बिस्तर पर आराम करने की सलाह दी जाती है। इन उपायों से भी फ्रैैक्चर के नियत समय में नहीं जुड़ने पर अस्थि ग्राफ्ट प्रत्यारोपण का सहारा लिया जाता है जो कई बार कारगर साबित नहीं होता है। परम्परागत तरीकों से नहीं जुड़ने वाले फ्रैक्चर को अधिक चीर-फाड़ के बगैर बहुत कम समय में तथा बिल्कुल सही तरीके से जोड़ने के लिये आजकल इलिजारोव तकनीक काफी कारगर साबित हो रही है। यही नहीं छोटे हो गये पैर एवं टांग को भी इस तकनीक की मदद से बढ़ाया जा सकता है।
हड्डी सजीव ऊतक है जिसमें टूटने पर अपने आप जुड़ जाने की क्षमता होती है। दुर्घटनाओं एवं अन्य कारणों से टूटी हुयी हड्डियां बांहों में डेढ़ से दो महीनों में तथा टांगों में तीन से चार महीनों में जुड़ती है। लेकिन कई बार टूटी हुयी हड्डियां सामान्य अवधि के भीतर नहीं जुड़ पाती हंै। इस स्थिति को नाॅन युनियन फ्रैक्चर कहा जाता है।
सामान्य अवधि के भीतर टूटी हुयी हड्डियों के आपस में नहीं जुड़ने के अनेक कारण हो सकते हैं इनमें धूम्रपान, मधुमेह, कैल्शियम की कमी (रिकेट), विटामिन 'सी' की कमी (स्कर्बी), ओस्टियोपोरोसिस, हार्मोन एवं उपापचय संबंधी गड़बड़ियां और आनुवांशिक कारण प्रमुख हैं। कई बार मरीज की उम्र अधिक (खास तौर पर 60 साल से अधिक उम्र) होने पर टूटी हुयी हड्डियां देर से जुड़ती हैं। इसके अलावा कई बार जब टूटी हुयी हड्डियों को आपस में ठीक से समायोजित किये बगैर प्लास्टर चढ़ा दिया जाता है या मरीज समय से पहले चलने लगता है तो हड्डियां नहीं जुड़ पाती हंै। कई बार टूटी हुयी हड्डियों के बीच मांसपेशी फंसी रह जाती है या टूटी हुयी हड्डियों के बीच अधिक दूरी रह जाती है, ऐसे में हड्डियों का आपस में जुड़ पाना मुश्किल होता है। इसलिये प्लास्टर से पूर्व टूटी हुयी हड्डियों को ठीक से सेट करना चाहिये तथा यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि उनके बीच मांस फंसा हुआ नहीं है। प्लेट अथवा राॅड डाल कर हड्डी जोड़ने पर शरीर से इनकी प्रतिक्रिया होने और शल्य क्रिया के दौरान संक्रमण के कारण मवाद पड़ जाने के कारण भी कई बार टूटी हुयी हड्डियां नहीं जुड़ती हंै। कई बार हड्डियांे के नहीं जुड़ने पर आॅपरेशन करना पड़ सकता है। इसके तहत अस्थि ग्राफ्ट का प्रत्यारोपण किया जाता है। कई बार यह अस्थि ग्राफ्ट प्रत्यारोपण कार्य नहीं करता तथा हड्डी नहीं जुड़ने के कारण रोगी महीनों और वर्षों तक परेशान रहता है। कई मरीजों में कई-कई बार आॅपरेशन होने से टंाग भी छोटी हो जाती है। लेकिन आजकल इलिजारोव रिंग फिक्सेटर तकनीक की मदद से न केवल टूटी हुयी हड्डियों को कम समय में बेहतर तरीके से जोड़ा जाने लगा है बल्कि छोटी हो गयी टांग को भी बढ़ाया जाने लगा है। इलिजारोव तकनीक के तहत नहीं जुड़ने वाले प्रभावित भाग को काट कर निकाल दिया जाता है तथा उस स्थान पर रिंग फिक्सेटर लगा दिया जाता है।
इलिजारोव तकनीक की मदद से हड्डी जोड़ने के साथ-साथ मवाद भी समाप्त हो जाता है। इस तकनीक के लिये रोगी के प्रभावित हाथ-पैर में ज्यादा चीर-फाड़ करने की जरूरत नहीं होती बल्कि रोगी को बेहोश करके उसकी त्वचा पर मात्रा एक सेंटीमीटर का चीरा लगाया जाता है और इससे 1.2 मिलीमीटर व्यास वाले स्टेनलेस स्टील की दो तारों को हड्डियों के बीच से होकर आर-पार खींच दिया जाता है। इन तारों पर रिंग फिक्सेटर लगा दिया जाता है। यह रिंग फिक्सेटर एक तरह का फ्रेम होता है और इस पर लोहे के गोल छल्ले या रिंग और विशेष धातु के बने पिन लगे होते हैं। ये रिंग आपस में कनेक्टिंग राॅड्स से जुड़े होते हैं। रोगी के जिस भाग की हड्डी का उपचार करना होता है उस पर यह फिक्सेटर लगा दिया जाता है। इससे वह हड्डी स्थिर हो जाती है। इस दौरान उपचार किये जाने वाले भाग में रक्त आपूर्ति बढ़ जाती है और वहां बालों की तीव्र वृद्धि हो जाती है जो रक्त आपूर्ति बढ़ने का संकेत हैं।
यह तकनीक इस सिद्धांत पर आधारित है कि जब शरीर के कोमल ऊतक पर खिंचाव डाला जाता है तो कोशिकायें, भ्रूण कोशिकाओं की तरह व्यवहार करने लगती है और उनमें कोशिका विभाजन की दर बढ़ जाती है। इस क्रिया को 'डिस्ट्रैक्शन नियोहिस्टोजेनेसिस' कहते हैं और हड्डी बढ़ाने की क्रिया को 'डिस्ट्रैक्शन नियोआॅस्टियोजेनेसिस' कहते हैं। हमारे शरीर की हाथ-पैर की हड्डियों में भी वृद्धि करने की क्षमता होती है। हमारा शरीर टूटी हुयी हड्डी को जोड़ने के लिए उस स्थान पर 'कैलस' नामक चिपचिपे पदार्थ का स्राव करने लगता है। 'कैलस बनने की क्रिया' बच्चों, वयस्कों और वृद्धों में अलग-अलग समय लेती है। बच्चों में कैलस 7 दिन में, वयस्कों में 10 दिन में और वृद्धों में 14 दिन में बन कर तैयार हो जाती है।
इलिजारोव तकनीक के तहत निर्धारित लंबाई तक पैर बढ़ जाने पर नट-बोल्ट कसने की क्रिया बंद कर दी जाती है और कैलस को ठोस होने के लिए छोड़ दिया जाता है। लंबी की गई हड्डी को ठोस बनने में लंबाई बढ़ने की तुलना में लगभग दोगुना समय लगता है। इसमें फिजियोथेरेपी की भी अहम भूमिका है। आॅपरेशन के बाद तब तक रोगी के प्रभावित हाथ-पैर की फिजियोथेरेपी की जाती है जब तक कि उसके हाथ-पैर बिल्कुल सामान्य न हो जाए।
देश में विकलांगता निवारण के लिये की जाने वाली शल्य चिकित्सा के क्षेत्रा में अग्रणी माने जाने वाले डा. सुभाष शल्या बताते हैं कि इस आॅपरेशन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें रक्तस्राव और दर्द नहीं के बराबर होता है इसलिए इसे 'ब्लडलेस आॅपरेशन' भी कहा जाता है। इसके अलावा इस आॅपरेशन का एक फायदा यह भी है कि आॅपरेशन वाले भाग पर किसी तरह का प्लास्टर नहीं चढ़ाया जाता है और एक सप्ताह में ही मरीज चलने-फिरने लगता है और अपने काम पर वापस जा सकता है। इस तकनीक की मदद से वर्षो से न जुड़ने वाले फ्रैक्चरों के अलावा वर्षों से हड्डियों से रिस रहे मवाद, जन्मजात कारणों, पोलियो, अन्य रोगों और दुर्घटनाओं के कारण टेढ़े-मेढ़े और छोटे हुए हाथ-पैर के अतिरिक्त लगभग 800 तरह के अन्य अस्थि रोगों का 99 प्रतिशत सफलता के साथ इलाज किया जा सकता है।
0 Comments: