''मैं उन बदनसीब हिंदू औरतों में हूं, जो बाल विवाह के बंधन में जकड़ दिये जाने के कारण न जाने कितने अनाम दुःख सहती है। बाल विवाह की इस क्रूर बुराई ने मेरी जिंदगी की खुशियां छीन ली। यह मेरे और मेरी ख्वाहिशों, यानी पढ़ाई और मानसिक विकास के बीच आ गई है। बेकसूरवार होने के बावजूद मैं एकाकीपन को अभिशप्त हूं। अपनी अनपढ़ बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर इच्छा को शक की नजर से देखा जाता है और इसे बेहद गलत ढंग से पेश किया जाता है।''
बाल विवाह की शिकार हुई रुकमाबाई के एक पत्र का अंश जो 26 जून 1885 को ''टाइम्स ऑफ इंडिया'' में प्रकाशित हुआ था और जिसे जया सगाडे की पुस्तक ''चाइल्ड मैरिजेज इन इंडिया'' (ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित) में भी शामिल किया गया है।
बाल विवाह के कारण अभिशप्त जीवन भोगने को विवश रूकमाबाई की व्यथा के सामने आने के एक सदी और 21 साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी आज आजाद भारत में लाखों अभागी लड़कियां बाल विवाह के बेड़ियों में जकड़ी हैं। आज से करीब 77 साल पहले 1927 में बाल विवाह की रोकथाम के लिये शारदा कानून के अस्तित्व में आने के बावजूद हमें शर्मसार करने वाला एक तथ्य यह है कि आज हमारे देश में जितनी लड़कियों की शादी होती है उनमें से 65 प्रतिशत लड़कियां 18 साल से भी कम उम्र की होती हैं। कुछ राज्यों में तो स्थिति और भी खराब है। बिहार में 84 प्रतिशत, राजस्थान में 82 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 80 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 80 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 79 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 65 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 62 प्रतिशत, कर्नाटक में 61 प्रतिशत, हरियाणा में 60 प्रतिशत, उड़ीसा में 58 प्रतिशत, गुजरात में 54 प्रतिशत, तमिलनाडु में 42 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 38 प्रतिशत, केरल में 27 प्रतिशत और पंजाब में 23 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही कर दी जाती है। बाल विवाह को रोकने के लिए जन्म और शादी का पंजीकरण अनिवार्य कर दिये जाने के बावजूद बाल विवाह कानून का कम ही पालन किया जाता है।
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