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मोटापे से भी बढ़ता है मोतियाबिंद

नेत्रा अंधता का सबसे प्रमुख वजह माना जाने वाला मोतियाबिंद जिन कारणों से बढ़ता है उनमें मोटापा भी शामिल है। नवीनतम अध्ययनों से साबित हुआ है कि मोटे लोगों को दुबले-पतले लोगों की तुलना में मोतियाबिंद होने का खतरा 36 प्रतिशत अधिक होता है।  मोतियाबिंद मोटापे के मधुमेह और गुर्दाें में खराबी जैसे मेटाबोलिक रोगों, निकट दृष्टि दोष (मायोपिया), ग्लूकोमा, शक्तिवर्द्धक स्टेराॅयड के सेवन, धूम्रपान और पोषक तत्वों की कमी से भी मोतियाबिंद का खतरा बढ़ता है।
मोटापे के कारण जिन बीमारियों की आशंका बढ़ती है उनमें मोतियाबिंद भी शामिल है। मोतियाबिंद हमारे देश में सबसे प्र्रचलित एवं सबसे पुराना नेत्रा रोग है और यह विश्व भर में नेत्रा अंधता का सबसे बड़ा कारण है। 
मोतियाबिंद अथवा सफेद मोतिया आंख के लेंस में सफेदी आ जाने को कहते हैं जिसके कारण आंख में प्रवेश करने वाली रोशनी धीरे-धीरे कम होने लगती है। इसके कारण एक स्थिति मंे मरीज को दिखाई देना बंद हो जाता है। यह बीमारी आमतौर पर 55 से 65 वर्ष की आयु के बीच होती है। लेकिन कई लोगों में यह बीमारी 40 साल में ही या उससे पहले ही आरंभ हो जाती है और एक-दो साल में गंभीर रूप ले लेती है। किशोरों में मोतियाबिंद परिपक्व होने की दर बहुत अधिक होती है। 
एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में तकरीबन चार करोड़ अंधे लोगों में से एक करोड़ 70 लाख लोग मोतियाबिंद के कारण अंधेपन के शिकार हैं। भारत मोतियाबिंद के मामले में सबसे अग्रणी देश है। देश में 80 लाख लोग मोतियाबिंद के आॅपरेशन के इंतजार में हैं। हमारे देश में एक करोड़ बीस लाख नेत्राहीन लोगों में से 80 प्रतिशत लोग मोतियाबिंद के कारण नेत्राहीन हैं। भारत में मोतियाबिंद के कारण होने वाली नेत्रा अंधता की दर पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत अधिक है। 
औसत आयु में बढ़ोतरी, मधुमेह और गुर्दाें में खराबी जैसे मेटाबोलिक रोगों, निकट दृष्टि दोष (मायोपिया), ग्लूकोमा, शक्तिवर्द्धक स्टेराॅयड के सेवन, धूम्रपान और पोषक तत्वों की कमी मोतियाबिंद के प्रमुख कारण हैं लेकिन अब एक नवीनतम शोध से पता चला है कि मोटापे से मोतियाबिंद का खतरा बढ़ता है। 
नये शोध के अनुसार शरीर और वजन के बीच के अनुपात (बाॅडी मास इंडेक्स -बी एम आई ) का संबंध मोतियाबिंद के खतरे से है। वैज्ञानिकों के अनुसार 25 से कम  बी एम आई वाले लोगों को स्वस्थ माना जाता है जबकि 30 या उससे अधिक की बी एम आई वाले लोगों को मोटे व्यक्तियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। 
30 और उससे अधिक बी एम आई वाले मध्यम वय के पुरुषों और महिलाओं पर किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि इन लोगों को दुबले-पतले लोगों की तुलना में मोतियाबिंद होने का खतरा 36 प्रतिशत अधिक होता है। इस अध्ययन से मोटापा  और न्युक्लियर कैटरेक्ट के बीच कोई 
संबंध नहीं पाया गया। न्यूक्लियर कैटरेक्ट अत्यंत सामान्य किस्म का मोतियाबिंद है जो आंखों के मध्य भाग को नुकसान पहुंचता है। 
शोधकर्ताओं ने पाया कि मोटे लोगों में पोस्टेरियर सबकैपसुललर कैटरेक्ट का खतरा 68 प्रतिशत अधिक हो जाता है। पोस्टेरियर सबकैपसुलर कैटरेक्ट आंखों के लेंस के पिछले भाग में बनने वाली मोतिया है और यह नेत्राअंधता भी पैदा कर सकती है। 
इस शोध से यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि मोटापे से किस तरह से मोतियाबिंद का खतरा बढ़ता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि मोटे लोगों में शर्करा नियंत्राण ठीक नहीं होने के साथ-साथ उनमें इंफ्लामेट्री यौगिकों का स्तर अधिक होता है और ये दोनों ही मोतियाबिंद का खतरा बढ़ाने के लिये जिम्मेदार हो सकते हैं। 
हालांकि इस बारे में और भी अध्ययनों की जरूरत है लेकिन इंटरनेशनल जनरल आॅफ ओबेसिटी में प्रकाशित शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि मोटापे और शारीरिक वजन पर समुचित नियंत्राण रख कर मोतियाबिंद की रोकथाम की जा सकती है। यह अध्ययन अमरीका के एक लाख 30 हजार लोगों पर किया गया जिनकी उम्र 45 वर्ष या उससे अधिक थी। 
कारगर दवाईयों के अभाव में मोतियाबिंद के उपचार का एकमात्रा उपाय केवल आॅपरेशन है। लेकिन अब फेको इम्लशिफिकेशन की नयी तकनीक के विकास होने के कारण यह आॅपरेशन पूरी तरह सुरक्षित, आसान, कारगर तथा कष्टरहित बन गया है। डा. अल्केश चैधरी बताते हैं कि मोतियाबिंद के आपरेशन के जरिये कुदरती लेंस को निकाल कर उसके स्थान पर दूसरा लेंस लगा देना होता है। आंख के भीतर से निकाले गये कुदरती लेंस के स्थान पर दूसरा लेंस प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। इस प्रत्यारोपित लेंस को इंट्राआकुलर लेंस कहा जाता है। साधारण आपरेशन के तहत आंख में चीरे लगाकर पहले कुदरती लेंस को निकाल लिया जाता है और फिर उसकी जगह पर इंट्राआकुलर लेंस फिट करके टांके लगाकर चीरे को बंद कर दिया जाता है। यह लेंस सारी जिंदगी रोशनी को पर्दे पर फोकस करता रहता है जिससे साफ दिखाई पड़ता है। 
चीरा एवं टांके लगाये बगैर मोतियाबिंद के आॅपरेशन करने की एक नई विधि का विकास हुआ है जिसे फेको इमल्शिफिकेशन कहा जाता है। इस नवीनतम विधि से आॅपरेशन करने पर मरीज को कोई दर्द नहीं होता। यहां तक कि आॅपरेशन से पूर्व मरीज की आंख को सुन्न करने के लिये सुई लगाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। आपरेशन के लिये आंख में इतना सूक्ष्म चीरा लगाया जाता है कि वह स्वयं भर जाता है इसलिये उसे सिलने के लिये कोई टांका भी नहीं लगाना पड़ता। टांका नहीं लगाये जाने के कारण मरीज को बाद में कोई दिक्कत नहीं होती है। यह छोटा चीरा भारी दबाव को भी बर्दाश्त कर सकता है। इसलिये इस तकनीक से आॅपरेशन करने के बाद मरीज को आंखों पर पट्टी लगाने तथा पानी आदि से बचाने जैसे परहेज करने की जरूरत नहीं होती है। फेको इमल्शिफिकेशन तकनीक में जो सुधार हुआ है उसकी बदौलत मरीज आपरेशन के तत्काल बाद देख सकता है और अपना काम-काज कर सकता है। आजकल नई तकनीकों की मदद से कच्चे मोतिये पर आॅपरेशन करने से ज्यादा बेहतर परिणाम मिलने लगे हैं।


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