हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा जल्द से जल्द बोलना शुरू कर दे। बच्चे का बोलना शुरू करना विकास की एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। बच्चे बोलना एक वर्ष से लेकर चार वर्ष की उम्र तक सीखते हैं। 50 फीसदी से अधिक सामान्य बच्चे एक वर्ष की उम्र पर कुछ शब्द जैसे —मामा, पापा इत्यादि बोलना शुरू कर देतेे हैं तथा दो वर्ष की उम्र पर छोटे वाक्य जैसे—मैं खाना खाऊंगा इत्यादि बोलने लगते हैं। लेकिन बाकी बच्चों में यह प्रक्रिया थोड़ी देर से भी शुरू हो सकती है। इसलिए अगर आपका बच्चा दो से चार वर्ष की उम्र तक भी ये सब शुरू करता है लेकिन उसका बाकी मानसिक विकास अपनी उम्र के समतुल्य है तो घबराने की जरूरत नहीं है। क्योंकि पाँच या छह वर्ष की उम्र तक यह बच्चा अन्य बच्चों के समतुल्य ही बोलना शुरू कर देगा।
लोगों में एक अंधविश्वास यह है कि बच्चे में तातुआ (टंग टाई) की वजह से बच्चा नहीं बोल रहा है। लोग उसे कटवाने के चक्कर में पड़ जाते हैं। वास्तव में तातुआ ऐसी कोई चीज नहीं होती है। बच्चों में एक दूसरी समस्या है—बच्चों के तुतलाने की। अक्सर बच्चे तीन या चार वर्ष की उम्र तक तुतलाकर बोल सकते हैं। उसके बाद बच्चों का तुतलाना ठीक हो जाता है तथा वह साफ बोलना शुरू कर देता है। अगर बच्चा चार वर्ष की उम्र के बाद भी तुतलाता है तो किसी अच्छे स्पीच थेरेपिस्ट एवं बाल रोग विशेषज्ञ से मशविरा कर लें।
बच्चों में बोलने संबंधी एक अन्य समस्या है— हकलाना। इसके प्रमुख कारण हो सकते हैं—बच्चे का एकाकीपन, बच्चे में आत्मविश्वास की कमी, माता-पिता या अध्यापक का कड़ा रुख, बच्चे की उपेक्षा, आदतन किसी दोस्त या सगे-संबंधी की नकल उतारना और फिर यही आदत बन जाना। कभी-कभी अधिक लाड़-प्यार में पले बच्चे दूसरों के सामने बोलने में तुतला सकते हैं। ऐसे बच्चों की भी पूरी तरह जाँच-पड़ताल करके कारण का निवारण करना अनिवार्य है। इसमें भी बाद में स्पीच थेरेपिस्ट की मदद ली जा सकती है।
तुतलाहट, हकलाहट और अन्य स्वर विकार की समस्या बालपन से ही तब शुरू होती है जब घर-परिवार के लोग बच्चे की हकलाहट या तुतलाहट को बाल प्रवृत्ति या बाल स्वभाव मान कर उसकी तरफ ध्यान नहीं देते। कई लोग जानकारी एवं जागरूकता के अभाव में बोलने संबंधी समस्याओं और स्वर विकारों को लाइलाज विकृतियाँ या ईश्वर की देन मान कर इलाज नहीं करवाते हैं और अपने बच्चों को जीवन भर कुंठा एवं मानसिक त्रासदी झेलने के लिये अभिशप्त कर देते हैं। एक अनुमान के अनुसार स्कूल जाने की उम्र वाले 5 से 25 प्रतिशत बच्चों में स्वर संबंधी समस्यायें होती हैं। भारत में लोगों में जागरूकता के अभाव के कारण स्वर विकार की समस्यायें अन्य देशों की तुलना में काफी अधिक हैं।
बच्चों में स्वर विकार जन्मजात भी हो सकते हैं अथवा आदत, अभ्यास की कमी एवं वातावरण जैसे कारणों से भी उत्पन्न हो सकते हैं लेकिन इलाज, काउंसलिंग तथा समुचित अभ्यास की मदद से इन स्वर दोषों को दूर किया जा सकता है।
बच्चे पैदा होते ही बोलने नहीं लगते बल्कि वे माता-पिता, परिवार एवं पास-पड़ोस के लोगों से ही बोलना सीखते हैं। बच्चे को अगर बोलने की प्रेरणा अच्छी तरह मिले और उसे कोई नुख्श नहीं हो तो वह डेढ़ साल की उम्र तक बोलना आरंभ कर देता है। बच्चे के बोलने के तौर-तरीके उनके माता-पिता के तौर-तरीके पर भी बहुत कुछ निर्भर करते हैं। कम बोलने वाले माता-पिता के बच्चे भी कम या देर से बोलते हैं। हकलाने वाले माता-पिता के बच्चों के भी हकला कर बोलने की आशंका रहती है। कर्कश और गलत उच्चारण में बोलने वाले माता-पिता के बच्चे भी कर्कश एवं गलत उच्चारण में बोलते हैं।
बच्चे के सही समय पर सही एवं पर्याप्त वाक्-क्षमता विकसित होने के लिये आवश्यक है कि उसे आसपास के लोगों एवं बच्चों से अधिकाधिक स्टिमुलेशन मिले। इसलिये माता-पिता को बच्चों से सही उच्चारण एवं सही तौर-तरीके के साथ खूब बातें करनी चाहिये।
कई माता-पिता की शिकायत होती है कि बच्चा दो साल या अधिक उम्र का हो गया है और अभी तक बोलना शुरू नहीं किया है। यह प्रक्रिया सामान्य भी हो सकती है क्योंकि बच्चे के पूरा बोलने का विकास एक से चार साल तक सम्पन्न होता है लेकिन बच्चे की जाँच करके यह पता लगाना जरूरी है कि बच्चे में कोई और कमी तो नहीं है। जैसे कई बार पता चलता है कि दरअसल बच्चा या तो सुन नहीं पा रहा है या सुनने में उसे दिक्कत हो रही है। बच्चा जब नहीं सुन पाता है तब वह बोलना भी नहीं सीख पाता है। इसके अलावा यह भी पता लगाना जरूरी है कि बच्चे को कोई मानसिक कमजोरी या स्नायु संबंधी गड़बड़ी तो नहीं है। इन कमियों का समय रहते उचित उपचार जरूरी है।
कुछ मानसिक विकृतियों के कारण भी स्वर विकास में बाधा उत्पन्न होती है। इन मानसिक विकृतियों में सेरेब्रल पाल्सी प्रमुख है। इसमें जन्म के दौरान मस्तिष्क को क्षति पहुँचने से माँसपेशियों में गड़बड़ी आ जाती है। इसके अलावा कुछ बच्चों में जन्म से ही तालु में छेद होता है। इससे भी स्वर विकास में गड़बड़ी आ जाती है। तालु में छेद रहने पर आवाज निकालने के लिये मुँह के अंदर जितने वायु दाब की जरूरत होती है वह नहीं बन पाता है क्योंकि कुछ हवा छेद के जरिये नाक के रास्ते निकल जाती है। ऐसे में बच्चों की आवाज नाक से आती है। तालु में छेद होने पर कितना स्वर विकास बाधित होगा यह इस बात पर निर्भर होता है कि छेद कितना बड़ा है। कई बच्चों में तो पीछे की तालु से लेकर ओठ तक छेद होता है। तालु के छेद को प्लास्टिक सर्जरी के जरिये बंद किया जा सकता है। यह आपरेशन जितना जल्दी हो जाये उतना अच्छा होता है। ऐसे बच्चे जब तरल आहार खाते हैं या पानी पीते हैं तो नाक से भी यह निकल जाता है। ऐसे में शीघ्र आपरेशन जरूरी होता है। छेद बंद होने के बाद स्पीच थिरेपी की जरूरत पड़ती है ताकि उच्चारण सही हो पाये।
दो साल से अधिक उम्र के बच्चे के बोलना शुरू नहीं करने के लिये वातावरण संबंधी कई कारण भी जिम्मेदार होते हैं। मिसाल के तौर पर अगर पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हों और बच्चे को घर में पर्याप्त प्रेरणा (स्टिमुलेशन) नहीं मिल पाती है तो बच्चा देर से बोलना सीख सकता है। कई बार देखा जाता है कि घर में बच्चे के बिना बोले ही उसकी सभी जरूरतें पूरी कर दी जाती है। ऐसे में बच्चे बोलने की जरूरत नहीं समझते। इसलिये परिवार के लोगों को चाहिये कि बच्चे को माँगे बगैर कोई चीज नहीं दी जाये। उसे बोलने की जरूरत महसूस करायी जाये।
कई लोगों की धारणा होती है कि कुछ बच्चे देर से यहाँ तक कि पाँच साल की उम्र में बोलना शुरू करते हैं। लेकिन बच्चे के बोलना शुरू करने की एक उम्र होती है जिसे निर्णायक (क्रिटिकल) उम्र कहा जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि यह उम्र चार साल तक होती है। यदि बच्चा इस उम्र में बोलना शुरू नहीं करता है तो उसका सामाजिक एवं शैक्षणिक विकास प्रभावित होता है। साथ ही उसके मनोवैज्ञानिक विकास पर भी असर पड़ने की आशंका रहती है। ऐसी स्थिति में उसे तुरन्त चिकित्सक से दिखाना चाहिये।
जो बच्चे चार वर्ष के बाद भी तुतला कर बोलते हैं उनका तत्काल इलाज किया जाना चाहिये अन्यथा उनकी तुतलाहट आदत बन जायेगी और यह तुतलापन स्थायी बन जायेगा। हालाँकि तुतलाहट को किसी भी उम्र में ठीक किया जा सकता है लेकिन हकलाहट जैसे अन्य स्वर विकारों को ठीक करने में दिक्कत आती है। कई बच्चों के माता-पिता हंसी-मजाक में बच्चों के साथ तुतलाकर बात करते हैं। लेकिन ऐसा करना ठीक नहीं है क्योंकि बच्चे भी ऐसा करने लगते हैं।
कुछ बच्चे कोई विकार नहीं होने के बाद भी तुतलाते हैं क्योंकि उन्हें बोलने के बारे में ठीक से प्रशिक्षण नहीं मिला होता है। प्रशिक्षण एवं अभ्यास से ऐसे बच्चे ठीक से बोलने लगते हैं। कुछ ऐसे बच्चों को स्पीच थिरेपी की जरूरत पड़ सकती है। स्पीच थिरेपी देने से पहले स्वर, वाणी एवं भाषा का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके साथ ही बच्चे के नाक, कान एवं गले के अलावा सुनाई एवं मानसिक विकास की जाँच के बाद ही निर्णय लिया जाता है कि बच्चों के स्वर विकार को कैसे ठीक किया जाये।
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