भारत में खुले में शौच को खत्म करने के लिए ग्रामीणों में गहराई से बैठे सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को खत्म करना और महिला सशक्तिकरण करना आवश्यक है
भारत में खुले में षौच की परम्परा न सिर्फ दुनिया भर में उपहास का विशय है, बल्कि यह एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती भी है, जो हमारे नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता को काफी कम कर रही है। इस बारे में जो तथ्य है वे अतुलनीय हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की स्वच्छता स्थिति 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 52 प्रतिषत से अधिक ग्रामीण आबादी इस प्रथा को जारी रखे हुए है और खुले मंे षौच कर रही है। इसके विपरीत, पड़ोसी देष बांग्लादेश में, केवल 5 प्रतिषत ग्रामीण लोग खुले में षौच करते हैं। यहां तक कि उप सहारा अफ्रीका, जो हालांकि बहुत गरीब है, फिर भी भारत की तुलना में सिर्फ आधी ग्रामीण आबादी खुले में शौच करती है। यदि दुनिया के सभी देषों में खुले में षौच करने वालों की संख्या को जोड़ा जाए तो भी भारत में अभी भी खुले में शौच करने वाले लोगों की संख्या अधिक होगी- बहुत अधिक लगभग 60 करोड़!
वास्तव में ऐसा क्या है जिसके कारण भारत को इस संदेहास्पद भेदभाव का सामना करना पड़ता है? इसका जवाब हमारी संस्कृति में निहित है, खुले में शौच करना अनंत काल से ही एक परंपरा है। लेकिन तेजी से बढ़ती जनसंख्या, प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास जैसे तेजी से हो रहे और चरम परिवर्तनों से उत्पन्न होने वाली चुनौतियां हमें इन प्राचीन प्रथाओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर रही हैं। हमें जीवित रहने और कामयाब होने के लिए, अपनी पुरानी आदतों को छोड़कर नयी आदतों को अपनाना होगा। यदि हम नई संस्कृति को लगातार नहीं अपनाएंगे, तो अंधविश्वासी और पिछड़े रह जाएंगे। और इसलिए, सभी के लिए निर्णय लिये बिना समझना महत्वपूर्ण है, कि हमारे शौचालय की संस्कृति में क्या बदलाव करने की आवश्यकता है और हम उसमें किस प्रकार बदलाव कर सकते हैं।
अगर खुले में षौच करने की बात है, तो इसमंे परिवर्तन लाने के लिए पहला कदम सांस्कृतिक आदतों को समझना है। जब 'षौच'' त्याग करने की इच्छा बलवती होती है तो लोग सहजता से एकांतता और स्वच्छ वातावरण की तलाष करते हैं। बहुत से लोगों को वेस्टर्न 'वाटर क्लोजेट' की तुलना में घर से बाहर षौच करने पर राहत मिलती है। जापान में अत्याधुनिक रोबोट शौचालय हैं जिन्हें प्रकृति के साथ पूरी तरह से तालमेल बिठाने के लिए आविष्कार किया गया है, जो आपको राहत देने के साथ ही बहुत ही अनूठा अनुभव प्रदान करते हैं!
जब मूत्र और और शौच त्याग करने की बात आती है तो अधिकतर ग्रामीण लोग पारंपरिक दृष्टिकोण को ही अपनाते हैं। घर को पवित्र स्थान माना जाता है, और घर के अंदर कहीं भी षौच करना घृणास्पद और अस्वस्थ माना जाता है। घर से बाहर शौच करने के लिए सावधानी पूर्वक जगह चुनने का जिक्र ग्रंथों में भी है। और जांच के बाद, इन मान्यताओं और परंपराओं को आश्चर्यजनक रूप से पर्यावरण के अनुकूल पाया गया, शायद इसलिए कि आधुनिक पिट शौचालय और सेप्टिक प्रणालियां भूजल स्रोतों को दूषित कर सकती हैं।
हालांकि, आज की दुनिया में खुले में षौच अनुचित, खतरनाक और अव्यावहारिक है। दशकों से जनसंख्या के घनत्व में लगातार वृद्धि होने के कारण, शौच के लिए उपयुक्त खुले स्थान बहुत कम हो गए हैं, जिसके कारण मानव अपशिष्ट की अधिकता के कारण ये खतरनाक रूप से जल स्रोतों और मनुश्य के रहने के स्थानों के करीब हैं।
माता अमृतानंदमयी मठ और अमृता विश्वविद्यालय के माध्यम से गांवों में हमारे स्वच्छता कार्य के दौरान, खुले में शौच को खत्म करने के हमारे प्रयासों ने हमें कुछ महत्वपूर्ण सबक सिखाया है। हमें समुदाय के नेतृत्व वाली स्वच्छता के पूरे दृष्टिकोण के रूप में समावेषाी और भागीदारी के साथ शौचालयों को आवश्यक बनाने की आवश्यकता है। खासकर महिलाओं के लिए तो षौचालय अत्यंत महत्वपूर्ण है। शौचालयों का निर्माण, रख-रखाव और मरम्मत कर महिलाओं को सशक्त बनाकर, हम न केवल कौशल सीख रहे हैं बल्कि स्वच्छता और अन्य आवश्यकताओं के लिए क्षमता का निर्माण कर रहे हैं। अभी, हम स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए 5,000 महिलाओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं और क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए समुदायिक लीडर बन गए हैं।
जब महिलाएं स्वच्छ भारत मिशन के तहत स्व-सहायता समूह के गठन के महत्व को समझती हैं, तो इसमें भागीदारी करती हैं और क्रांतिकारी परिवर्तन करती हैं। वे जानकारी को साझा करती हैं और एक-दूसरे को सिखाती हंै। आपस में जानकारी का आदान- प्रदान कर, वे नए अनुभवों को हासिल कर रही हैं, जिनसे पहले उन्हें वंचित कर दिया गया था।
सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करने वाले कई भारतीयों के लिए, समृद्धि की देवी लक्ष्मी देवी सबसे प्रतिष्ठित हैं। वे देवी को दूशित करने के विचार को सहन नहीं कर सकते हैं, इसलिए महिलाओं को इस विचार के बारे में जागरूकता अभियान चलाने के लिए आगे आना पड़ा। ग्रामीणों को गांव की पवित्रता के बारे में और लक्ष्मी देवी गंदे गांव में कैसे प्रवेश नहीं करेंगी, बताने के लिए महिलाएं 'स्वच्छता' की अवधारणा को आगे बढ़ाने में सक्षम रही हैं। वे समूहों का निर्माण करती हैं और उन प्राकृतिक गांवों को अपनी अवधारणाओं को लागू करने के लिए तैयार करती हैं जिनके बारे में वे सोचती हैं और फिर इसे वास्तविकता बनाने के लिए व्यावहारिक और क्रियात्मक कदमों पर चर्चा करती हैं।
व्यवहार में बदलाव लाने के लिए, ग्रामीणों के साथ कम से कम बातचीत कर, उन्हंे षिक्षित कर या उनकी सामान्य जीवन शैली के साथ कम से कम छेड़छाड़ कर शौचालयों के उपयोग को बढ़ाने के लिए 'उनके मन को टटोलना' एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। बिहार में, रतनपुर में पारंपरिक शौचालय का इस्तेमाल करना एक मौलिक अवधारणा थी। हमने गांव में पहले शौचालयों का एक सेट बनाया और उसे आगे बढ़ाने की योजना बनाई और उसके बाद षौचालयों का दूसरा सेट बनाने का निर्णय लिया था। ऐसा हमने यह देखने के लिए किया कि गांववालों ने मुहैया कराये गये शौचालय का अधिक बार इस्तेमाल किया या नहीं। हमने शौचालय की अंदरूनी और बाहरी दीवारों पर सुंदर चित्रकारी कराई साथ ही षौचालय के रास्ते के लिए संकेतक भी लगाए। हमें उम्मीद थी कि इससे खुले में षौच करने की तुलना में शौचालय का इस्तेमाल करना अधिक आकर्षक विकल्प हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि हमें पता चला है कि खुले मंे षौच करने की तुलना में आकर्शक षौचालय का लोगों ने बहुत अधिक इस्तेमाल किया। इससे यह साबित होता है कि व्यवहारों में बदलाव लाकर गहराई तक पैठ बनाई हुई सांस्कृतिक मनोदशा को स्वच्छता के प्रति प्रभावित किया जा सकता है।
देष भर में 21 राज्यों में हमारे स्वच्छता अभियानों से हमने जो कुछ सीखा है, वह यह है कि प्रत्येक सफलता की कहानी के पीछे षक्तिषाली महिलाओं का सामुदायिक नेतृत्व जिम्मेदार होता है जो सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों और संकुचित व्यवहारों के खिलाफ लड़ती हैं। महिलाएं अपने परिवारों और समुदायों पर काफी प्रभाव डालती हैं। जब वे स्वच्छता और सफाई की चैंपियन बनती हैं, तो कई स्तरों पर आश्चर्यजनक परिवर्तन होते हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण और ग्रामीण आबादी के सामुदायिक परंपराओं के प्रति संवेदनशील होने के नाते भारत में खुले में शौच करने की प्रवृत्ति को समाप्त करना महत्वपूर्ण है और वास्तव में शौचालयों का निर्माण करना है।
प्रो. भवानी राव वुमेन्स एम्पावरमेंट एंड जेंडर इक्वलिटी में अमृता विश्वविद्यालय की यूनेस्को अध्यक्ष हैं। अमृता विश्वविद्यालय ने दो साल का, यूएनडीईएफ प्रोजेक्ट शुरू किया है जो महिलाओं को सामाजिक-लोकतांत्रिक भागीदारी के माध्यम से स्वच्छता और सामुदायिक विकास में बदलाव के चैंपियन बनने के लिए प्रशिक्षण देती है।
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