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विकलांग बना सकता है ब्रेन स्ट्रोक (पक्षाघात)

मस्तिष्क के एक या अधिक नसों के फटने से रक्तस्त्राव होने, उनमें रक्त के थक्के जमने या उनमें ट्यूमर अथवा एन्युरिज्म के बनने आदि के कारणों से होने वाले पक्षाघात हमारे देश में विकलांगता और असामयिक मौत के प्रमुख कारणों में से एक हैं। गले की एक या अधिक धमनियों में वसा के जमाव के बाद अक्सर उनमें रक्त के थक्के की उत्पत्ति होने की आशंका होती है। दरअसल वसा के जमाव के कारण इन नसों का लचीलापन कम हो जाता है। जमे वसा की भीतरी परत में दरार आने से वसा के कण या उस पर जमे खून के थक्के रक्त के प्रवाह के साथ मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं और ये वहां की महत्वपूर्ण कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाते हैं। ये अगर कुछ समय के लिये मस्तिष्क के किसी हिस्से को नुकसान पहुंचायें तो इससे मामूली दौरे या अस्थायी पक्षाघात होते हैं। इसे ट्रांसियेंट इस्कीमिक अटैक (टीआईए) कहा जाता है।
इससे एक आंख या दोनों आंखों से दिखना बंद हो जाना, दायें या बायें तरफ की वस्तुयें नहीं दिखना, एक हाथ या एक पैर का काम नहीं करना, आवाज साफ नहीं निकलना या कुछ शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाना जैसे लक्षण उत्पन्न करने वाले छोटे-बड़े पक्षाघात हो सकते हैं जो कुछ देर में खत्म हो जाते हैं और व्यक्ति सामान्य हो जाता है। दरअसल ये लक्षण चेतावनी है जिसे नजरअंदाज करने पर बड़ा लकवा उत्पन्न हो सकता है। ऐसे लक्षण उभरने पर मरीज अगर जल्द से जल्द सुयोग्य चिकित्सक के पास चला जाये तो गले की नब्ज देख कर रोग का अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर संदेह हो तो उसकी पुष्टि करने के लिए कम्प्युटर टोमोग्राफी (सी.टी. स्कैन), मैग्नेटिक रिसोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.), डाप्लर आदि जांच विधियों का सहारा लिया जाता है।
अगर ये बार-बार या स्थायी तौर पर हों तो मरीज बड़े पक्षाघात का शिकार हो जाता है इससे शरीर का आधा भाग नाकाम (अधरंग) हो जाता है और एक हाथ या पैर कमजोर पड़ जाता है। इलाज से कुछ ही रोगियों में पूरा फायदा हो पाता है और वे अपनी पूर्व स्थिति में पहुंच कर सामान्य ढंग से काम-काज कर पाते हैं। ज्यादातर मरीजों को आंशिक लाभ ही हो पाता है। जिस मरीज में एक बार पक्षाघात होता है उसमें इसके दोबारा होने की आशंका बनी रहती है। इसलिये पक्षाघात के हल्के या बड़े दौरे के बाद मरीज का पूरा निरीक्षण-परीक्षण करके कारणों का पता लगाकर उपचार करना अनिवार्य हो जाता है ताकि उन्हें भविष्य के बड़े खतरों से बचाया जा सके।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में होने वाली नयी शोधों से अर्जित उपलब्धियों की बदौलत पक्षाघात के मरीजों को जीवनदान दिया जा सकता है। नयी चिकित्सा तकनीकों की मदद से मरीजों को भविष्य में दोबारा पक्षाघात होने के खतरे से बचाया जा सकता है।
गले की कैरोटिड नामक धमनियां ही मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को बनाये रखती हैं और उनमें पोषक तत्व पहुंचाती रहती हैं। इन धमनियों में होने वाले रक्त प्रवाह में रूकावट से भविष्य में पक्षाघात की भयंकर बीमारी हो सकती है।
आधुनिक समय में इस रूकावट का पता अल्ट्रासाउंड या कैरोटिड डाप्लर की तकनीक से आसानी से लगाया जा सकता है। एम.आर. एंजियोग्राफी से यह पता चल जाता है कि किस हद तक रूकावट है। परन्तु स्थिति का सही जायजा एंजियोग्राफी से ही हो पाता है। अगर रूकावट 70 प्रतिशत से ज्यादा हो अथवा मरीज को पहले से ही हल्का या बड़ा पक्षाघात हो चुका हो तो मरीज का तत्काल इलाज करना जरूरी हो जाता है।
दिमागी दौरे का इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि किस धमनी में, कहां पर, कितना और कितनी लंबाई में रूकावट है। इन सब की जानकारी एंजियोग्राफी से चल जाता है और एंजियोग्राफी के निष्कर्ष के आधार पर ही तय किया जाता है कि उपचार की किन विधियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
रूकावट 50 प्रतिशत से कम होने पर इलाज के लिये पहले दवाईयों का सहारा लिया जाता है लेकिन 70 प्रतिशत से अधिक रूकावट होने पर आपरेशन अथवा एंजियोप्लास्टी का सहारा लिया जाता है। रूकावट कम होने पर मरीजों को एस्प्रिन और एसिट्रोम जैसी जो दवाइयां दी जाती हैं वे रक्त को पतला करती हैं ताकि धमनियों में काॅलेस्ट्राल का जमाव नहीं हो। इन दवाईओं से इलाज के दौरान मरीज की नियमित जांच आवश्यक है ताकि रक्त अधिक पतला नहीं हो अन्यथा हैमरेज का खतरा बढ़ सकता है। रूकावट अधिक होने पर इलाज का परम्परागत तरीका आॅपरेशन एंडआरटेªक्टोमी है। इसमें गर्दन की नसों को खोलकर काॅलेस्ट्राल या वसा के जमाव को निकाल दिया जाता है जिससे रक्त का प्रवाह सामान्य हो जाता है। आपरेशन के दौरान मस्तिष्क की नसों को क्लैम्प लगाकर बंद कर दिया जाता है ताकि मस्तिष्क पर किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पड़े। यह आपरेशन काफी सफल और कारगर किस्म का है जिससे अच्छे परिणाम मिलते हैं। इसकी सफलता दर 90 प्रतिशत है। लेकिन इस आपरेशन की स्थिति में एनेस्थिसिया से होने वाले दुष्प्रभाव तो होते ही हैं, साथ ही आपरेशन के दौरान कुछ स्नायु कट जाते हैं जो बाद में सामान्य कार्य नहीं कर पाते। इस आपरेशन के बाद अवरुद्व धमनी खुल जाती है लेकिन आपरेशन के पहले तक होने वाले नुकसान ठीक नहीं होते। आपरेशन के बाद भविष्य में दोबारा धमनी में रूकावट होने की संभावना कम हो जाती है।
अब मरीज को बेहोश किये तथा चीड़-फाड़ किये बगैर वसा के जमाव को दूर करने की तकनीक विकसित हुई है। इस नयी तकनीक को कैरोटिड स्टेंटिंग कहा जाता है। यह तकनीक बंद हृदय रक्त धमनियों को खोलने के लिये इस्तेमाल में आने वाली एंजियोप्लास्टी की तरह ही है। इसमें जांघ की एक धमनी में छोटा सा छेद करके उसके रास्ते होकर स्टेंट नामक स्प्रिंगनुमा यंत्र को गले की कैरोटिड धमनियों तक पहुंचाया जाता है। स्टेंट को ठीक जगह पर पहुंचाकर इन्हें आटोमेटिक छतरी की तरह खोल दिया जाता है जिससे यह धमनी में फैल जाता है। इससे वहां जमा वसा धमनियों की भीतरी परत में दब जाता है जिससे धमनी से दोबारा रक्त का प्रवाह होने लगता है। साथ ही इसमें वसा के कणों के टूटकर मस्तिष्क में जाने की आशंका समाप्त हो जाती है तथा पक्षाघात होने का खतरा टल जाता है। 
यह तकनीक एक महत्त्वपूर्ण चिकित्सकीय उपलब्धि है जिसके आपरेशन की तुलना में कई फायदे हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि इसमें चीर-फाड़ की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये मरीज को एनेस्थिसिया आदि देकर बेहोश नहीं करना पड़ता तथा आपरेशन की तुलना में इसमें बहुत कम समय आधा से एक घंटा लगता है। इस कारण मरीज जल्दी स्वास्थ्य लाभ करता है। इस विधि में मरीज को संक्रमण होने तथा मौत होने की आशंका आपरेशन की तुलना में बहुत कम होती है। मरीज को दूसरे ही दिन अस्पताल से छुट्टी दी जा सकती है। इन कारणों से इस पर कम खर्च आता है, इसके बावजूद इस विधि का फायदा परम्परागत आपरेशन से कहीं अधिक है।
इस विधि का इस्तेमाल उन मरीजों के लिये भी किया जा सकता है जिनका आपरेशन करना संभव नहीं है। खासकर उन रोगियों में जिनकी गले की धमनी में काफी ऊपर तक रूकावट है। 
विकसित देशों में व्यापक तौर पर प्रचलित यह तकनीक देश के कईअस्पतालों में उपलब्ध हो गयी है। शीघ्र ही इस तकनीक के कुछ और अस्पतालों  में इस्तेमाल शुरू होने की उम्मीद है। ऐसा होने पर देश के ज्यादा से ज्यादा मरीज इस तकनीक का फायदा उठा सकेंगे।


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